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ग्रहण करनेका है, और ऐसा श्रमण है समस्त चतुर्विध संघ । इस वचनसे यह सिद्ध होता है कि प्रवचन अर्थात् जिनवचनका जो आधार हो वही संघका सदस्य गिना जाता है, वही तीर्थस्वरूप हो सकता है। तो तीर्थ प्रवचन और संघ दो प्रकार का हुआ।
प्र०- ऐसे तीर्थ से संसार का उच्छेद हो इसमें क्या कोई युक्ति है ?
उ०- हां, जो जन्म-जरा-मरण, मिथ्यात्व-अविरति, कषाय-मोह-रागद्वेष... इत्यादि स्वरूप संसार है, ठीक इस से विपरीत स्वरूप तीर्थ से साध्य है, तो ऐसे तीर्थ से संसार का अंत क्यों न होवे?
तीर्थ यानी जिन प्रवचन का स्वरूप यह है :(१) जिन प्रवचन यथावस्थित सकल जीवादि पदार्थोका प्ररूपक है; (२) वह अत्यन्त निर्दोष और अन्यों से अज्ञात एसे चरण और करणकी क्रियाका आधार है, (३) त्रैलोक्यवर्ती शुद्ध धर्मसंपत्तिसे युक्त ऐसी महान आत्माओं ने जिनप्रवचन का अवलंबन किया है, (४) प्रवचन अचिन्त्य शक्तिसे संपन्न है, अविसंवादी है, श्रेष्ठ नाव समान है। इनका थोडा विवेचन देखेंसात तत्त्व :
(१) जिनप्रवचन जीव-अजीव-आश्रव-संवर-बन्ध-निर्जरा-मोक्ष,-इन सात तत्त्वोंका प्रतिपादन करता है। विश्व के दो मुख्य विभाग हैं, जीव और अजीव, यानी चेतन और जड। चेतन जीव चैतन्य अर्थात् ज्ञानादि स्फुरण स्वभाववाले होते हैं; अजीव इससे विपरीत जडता, अवकाशदान, रूपरसादि मूर्तता,.... गुणवाले होते हैं। जीव की सर्वथा विशुद्ध ज्ञानादि-अवस्था का प्रगट भाव मोक्षतत्त्व है, और उस को दबा कर रागद्वेष, मोह, जन्म, शरीर इत्यादि अशुद्ध अवस्थाका संपादन करनेवाले जड कर्मो के बंधन, यह बंधतत्त्व है। कर्म मूलतः आठ प्रकार के होते हैं; १ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय ५ आयुष्य, ६ नामकर्म, ७ गोत्रकर्म, ८ अंतरायकर्म । इन कर्मो के बंधन होने में कारणभूत हैं मिथ्यात्व, हिंसादि की अविरति, क्रोधादि कषाय वगैरह जिन्हें आस्रव (आश्रव) तत्त्व कहते हैं। (आस्रव = जिससे आत्मामें कर्मो का स्रवण हो) इन आश्रव-द्वारों को ढंकनेवाले, आश्रवों को रोक देने वाले सम्यक्त्व-व्रत-उपशमभाव आदि हैं इनके साधक समितिगुप्ति, परिसह, यतिधर्म, भावना, और चारित्रको संवरतत्त्व कहते हैं। इससे नये कर्मबंधन रुक जाते हैं। प्राचीन कर्मबंधनों का क्षय करनेवाले बाह्य-आभ्यन्तर तप को निर्जरातत्त्व कहते हैं । बाह्य तप के अनशन-उनोदरिका-वृत्तिसंक्षेपरसत्याग-कायक्लेश-संलीनता, ये छः प्रकार होते हैं; और आभ्यन्तर तप में प्रायश्चित-विनय-वैयावच्च-स्वाध्यायध्यान-कायोत्सर्ग, ये छ: प्रकार आते हैं। ये सात तत्त्व अनेकांत धर्मो से युक्त होते हैं। इन सातों तत्त्वोंका यथार्थ प्रकाशक जिनप्रवचनरूप तीर्थ है। इसी के आलम्बन से अर्थात् सातों तत्त्वोंका सम्यग श्रद्धान करने पूर्वक आश्रवों का त्याग और संवर-निर्जरा का आसेवन करने से संसार का उच्छेद होना सहज ही है, युक्तियुक्त है।
निर्दोष चारित्र क्रियाएँ :
जिनप्रवचनमें पवित्र ज्ञानाचार-दर्शनाचार-चारित्राचार-तपाचार-वीर्याचार, इन पांच आचारों का पालन सुशक्य और उच्चरूपसे सुसाध्य हो ऐसी चरण सित्तरी और करण सित्तरी अर्थात् उत्तरगुणों की अत्यन्त निर्दोष
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