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________________ उ० . जिसके अवलम्बनसे जीव संसार सागर को तैर जाए उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा है प्रवचन या संघ । क्यों कि वह जीव पर लगे हुए बहुत लम्बे संसार से जीवको तार देता है । संसार में जन्म-जरा-मृत्यु स्वरूप पानी हैं; मिथ्यादर्शन और अविरति की गंभीरता है गहराई है; महाभयङ्कर क्रोधादि कषाय पाताल-स्थानमें हैं; अत्यन्त दुर्लङ्घ्य मोहरूप आवर्त (भमरी) से वह भयानक है; भिन्न भिन्न भाँति के दुःखों के राशि स्वरूप दुष्ट जलचर जन्तु इस में भरे हैं; रागद्वेष रूप पवनसे वह खलबल हुआ है; संयोग-वियोगों की तरङ्गों से भरा हुआ है; प्रबल मनोरथ रूप ज्वार सहित है। (जन्म, जरा और मृत्यु की सतत धारा में रहते हुए जीवों को मिथ्यादर्शनादि उपाधियाँ लगी हैं, इसलिए जन्म आदि भवसमुद्र के पानी के स्थानमें हैं। मिथ्यादर्शन मिथ्यात्व को कहते हैं; और वह, सर्वज्ञ से कथित नहीं ऐसे तत्त्व की श्रद्धा स्वरूप है। अविरति है हिंसादि पापों का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग न होना । वे दोनों संसार समुद्रकी गहराई समान है क्यों कि इनमें से बाहिर आना अत्यन्त मुश्किल है। क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार महाभयङ्कर कषाय चार पाताल-कलशों के स्थानमे हैं। इस पर संसारसमुद्र आधारित है और मनोरथों के ज्वार उत्थित होते हैं। यह जो एकेक लक्ष योजन के प्रमाणवाले चार महाकलश पाताल में नित्य स्थायी होते हैं वे पाताल के समान गहरे होने से, उनको पाताल कहा गया। शास्त्रोमें कहा हैं कि 'लवण' समुद्रमें नीचे चार दिशाओं में अवगाहित ऐसे ९५००० योजन प्रमाण घड़ेकी आकृति वाले चार पातालकलश होते हैं। इनमें नीचे रहे हुए वायु से उपरका जल प्रतिदिन नियमबद्ध प्रेरित होने की वजह से समुद्रमें नियमबद्ध ज्वार आते हैं। इस प्रकार संसारसागर के मूल में कषाय रूप पातालकलश है, और उन में से मनोरथ स्वरूप ज्वार उठते हैं । एवं भवसमुद्रमें मोह आवर्त्त-सा है। आवर्त है ऐसा जलभाग जो सदा बहुत जल्दी गोलाकारमें घुमता रहता हैं। जिसमें फँसे हुए नाव या मनुष्य बाहिर निकल नहीं पाते हैं। यों मोह, जो कि अज्ञान - मूढता - व्युद्ग्रह - काम वासनाएँ आदि स्वरूप हैं, वह एक ऐसा आवर्त है जिसे लंघना बहुत कठिन है । अपरं च जन्म-मृत्यु आदिकी पीडा - अनिष्टसंयोगइष्टवियोग-रोग-शोक- दारिद्र- पराधीनता- अपमान-तिरस्कार- क्षुधा तृषा-प्रहार- वध इत्यादि अनेकविध दुःख संसारसागरमें जलजन्तुकी तरह व्याप्त रहते हैं। यह संसार रागद्वेष से सदा क्षुब्ध रहने के कारण आत्मामें हमेशा अस्वस्थता रहती हैं । एवं इप्यनिष्ट कई सहस्र संयोग-वियोगों के तरंग उल्लसित रहते हैं जिनमें सुख अत्यल्प और दुःख अनंत होता हैं । पुनः ऐसी अगणित प्रबल आशाओंके ज्वारों में जीव कर्षित होता है कि जो बहुधा निष्फल होने के कारण मात्र दुःखद होती हैं इतना ही नहीं, किन्तु नई नई आशाओंको जन्म दे जाती हैं, फलतः दुःख ही प्राप्त होता है । ) ऐसा संसार अनादि अनन्त काल से चला आ रहा हैं, अतः अत्यन्त लम्बा है। ऐसे संसारसे पार करनेवाले उपाय को तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ जिनप्रवचन है या जैन संघ है। प्र० - जैन संघ तीर्थ कैसे ? उ०- प्रवचन किसी आधार विना नहीं रह सकता है, इसलिए तीर्थस्वरूप जो प्रवचन उसका आधारभूत सङ्घ भी तीर्थ है। श्रमण भगवान महावीर परमात्मा से गणधर श्री गौतम स्वामीजी महाराजने यह प्रश्न किया की 'हे भगवन् ! तीर्थ कौन है ? तीर्थ तीर्थ है या तीर्थकर तीर्थ हैं ? प्रभुने उत्तर देते हुए कहा कि 'गौतम ! अरिहंत तो अवश्य तीर्थ करनेवाले हैं, जब कि तीर्थ है साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका ये चारों प्रकारोंका श्रमण संघ' । यहां श्रमण शब्दका अर्थ केवल मुनि नहीं हैं, किन्तु 'जिनवचनानुसार जो श्रमे अर्थात् तप करे यह श्रमण'- यह अर्थ ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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