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(ल.)- न चैवं स्वभावमात्रवादसिद्धिः, तदन्यापेक्षित्वेन सामग्र्या फलहेतुत्वात्, स्वभावस्य च तदन्तर्गतत्वेनेष्टत्वात् । निर्लोठितमेतदन्यत्रेति 'आदिकरत्व' सिद्धिः ॥३॥
(पं०) - अत्रैव शङ्काशेषनिराकरणायाह 'न च' = नैव, ‘एवं' एतत्स्वभावताङ्गीकरणे, 'स्वभावमात्रवादसिद्धिः' = स्वभावमात्रवादस्य - 'कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः,'- एवंलक्षणस्य सिद्धिः । कुत इत्याह 'तदन्यापेक्षित्वेन' =स्वभावव्यतिरिक्तकालाद्यपेक्षित्वेन, 'सामग्र्याः' = कालः स्वभावः नियतिः पूर्वकृतं पुरुषश्च - इत्येवंलक्षणायाः, 'फलहेतुत्वात्' = फलं कार्यं प्रति निमित्तत्वात् । कथं तर्हि प्राक् स्वभाव एव फलहेतुरूपन्यस्त इत्याह स्वभावस्य च''तदन्तर्गतत्वेन' = सामग्र्यन्तर्गतत्वेन, 'इष्टवात्' फलहेतुतया। 'निर्लोठितं' =निर्णीतम्, "एतत् = सामग्र्याः फलहेतुत्वम्, 'अन्यत्र' = उपदेशपदादौ ।
तो हम कहते हैं, यदि विना योग्यता भी सम्बन्ध मान लिया जाए तो मुक्तात्मा में अतिव्याप्ति होगी ! यह तो आपके लिए भी अनिष्ट होने से दोषरूप है, क्यों कि इस से फिर व्याघात होगा अर्थात् मुक्त आत्मा में संसार होने की आपत्ति का निवारण नहीं हो सकेगा। अतिव्याप्ति इस प्रकार है; - भव पार कर गए दूसरे आत्माओं में भी जन्म आदि सर्जन, कि जो अनिच्छनीय है, वह आ पडेगा; कारण, प्रस्तुत योग्यता यानी कर्मादिकर्तृत्वशक्ति उन मुक्त जीवों में न होने पर भी उन में संसारी आत्मा की भांति कर्म-अणु आदि के साथ सम्बन्ध निर्दुष्ट है, अर्थात् आत्म-अकर्तृत्व वादियों के लिए दोषरूप नहीं है। तात्पर्य,संसारी एवं मुक्त इन दोनों में ही योग्यता नहीं, तो संसारी में कर्म-सम्बन्ध और मुक्त में नहीं, ऐसा क्यों ? अन्वय और व्यतिरेक दोनों के द्वारा यह सोचनीय है।
प्र०- अन्वय और व्यतिरेक क्या चीज है ?
उ०- एक के होने में दुसरे का अवश्य होना, यह अन्वय है; और एक के न होने में दुसरे का अवश्य न होना, यह व्यतिरेक है। उदाहरणार्थ, यदि धुवां हो तो अग्नि होना ही चाहिए यह उन का अन्वय है; अग्नि न हो तो धुवां नहीं ही होगा, यह व्यतिरेक है। ऐसे यहां भी कर्म आदि का सम्बध यदि संसारी आत्मा में योग्यता विना ही हो, तब योग्यतारहित ऐसे मुक्त आत्मा में भी होना चाहिए; और यदि मुक्त आत्मामें योग्यता न होने के कारण कर्मसम्बन्ध न हो, तो संसारी आत्मामें भी नहीं ही होगा।
यहां सांख्य कर्माणुकी ही योग्यता मान पूछ सकते हैं कि,
प्र०- जैसे आप आत्मा कर्म दोनों के तादृश तादृश स्वभाव मानते हैं और संबन्ध बना लेते हैं, उसकी जगह केवल भिन्न भिन्न कर्माणु आदि ही आत्मा के साथ संबन्ध होने योग्य स्वभाववाले माने जाएँ, तो क्या हर्ज है ? इस से भी आत्मा के साथ इनका संबन्ध हो सकेगा।
ऐसा आप पूछेगे, लेकिन जैन कहते हैं कि :
उ०- ऐसा नहीं बन सकता; क्यों कि संबन्ध एक ऐसा पदार्थ है कि वह एक मात्र में नहीं किंतु दोनों में ही रह सकने के कारण दोनों के ही तथास्वभाव की अपेक्षा करता है। अतः यहां आत्मा में भी संबन्धयोग्य स्वभावकी आवश्यकता है। इससे विपरीत कल्पना अर्थात् आत्मामें ऐसे संबन्धयोग्य स्वभाव के विना ही केवल कर्माणु के तादृश स्वभाववश संबन्ध होने की कल्पना व्याहत है विरुद्ध है, क्यों कि इसमें न्याय यानी शास्त्रप्रसिद्ध दृष्टान्तकी असंगति हो जाती है; इस लिए ऐसा संबन्ध सिद्ध हो सकता नहीं है। असङ्गति इस प्रकार है,
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