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(ल०)- अतत्स्वभावे चालोकाकाशे विरुध्यते काण्वादेस्तत्स्वभावताकल्पनेतिन्यायानुपपत्तिः, तत्स्वभावताङ्गीकरणे चास्यास्मदभ्युपगतापत्तिः ।
(पं०)- भवतु नामैवं, तथापि कथं प्रकृतकल्पनाविरोध इत्याह-'अतत्स्वभावेच' = काण्वादिना सम्बन्धायोग्यस्वभावे च, 'अलोकाकाशे' 'विरुध्यते असम्बन्धद्वारायातया अतत्स्वभावताकल्पनया निराक्रियते 'कर्माण्वादेस्तत्स्वभावताकल्पना', 'इति' =एवं 'न्यायानुपपत्तिः' = न्यायस्योक्तलक्षणस्यानुपपत्तिः, प्रयोगश्च-यो येन स्वयमसम्बन्धयोग्यस्वभावो भवति, स तेन कल्पितसम्बन्धयोग्यस्वभावेनापि न सम्बध्यते, यथाऽलोकाकाशं काण्वादिना, तथा चात्मा कण्विादिनैवेति व्यापकानुपलब्धिः । एवं तर्हि तत्स्वभावोऽप्ययमङ्गीकरिष्यते इत्याह - 'तत्स्वभावताङ्गीकरणे च' काण्वादिसम्बन्धयोग्यरूपाभ्युपगमे च, 'अस्य' = आत्मनः 'अस्मदभ्युपगतापत्तिः' = अस्माभिरभ्युपगतस्य कर्तृत्वस्यापत्तिः प्रसङ्गः । है। आत्मामें रही हुई यह कर्माणु आदि के संबन्ध की योग्यता ही कर्तृत्वशक्ति है; जो कि वीतराग अयोग अवस्था पाने पर नष्ट हो जाती है; और तुरन्त मोक्ष पाने पर कभी कर्माणु आदिका सम्बन्ध आत्मा के साथ हो सकता नहीं है। अत: मुक्त जीवमें कभी कर्म सम्बन्ध की आपत्ति नहीं आती हैं। आत्मा को छोडकर शरीरादि अन्य पदार्थों में भी कर्मवश जो भाव उत्पन्न होते हैं, उनके प्रति भी आत्मा में योग्यता याने कर्तृत्वशक्ति स्वीकार करनी होगी। तात्पर्य, जन्म आदि समस्त विस्तारका कर्तृत्व आत्मा में ही है अतः आत्माको अकर्ता नहीं कह सकते।
जैन मत से आत्मा में कर्तृत्वसिद्धि :
सांख्यों के प्रति जैन कहते हैं कि आप अगर आत्मा में कर्तृत्व को स्वीकार नहीं करेंगे तो आत्मादि में होने वाले जन्म आदि सृष्टि का उपपादन आप से नहीं हो सकेगा। कारण है कि प्रवाहसे अनादि भी संसार में उस उस समय चित्रविचित्र जन्म आदि सर्जन जो होते हैं, उनमें हेतुभूत है, तत्तत् यानी अमुक-अमुक कर्माणु आदि के सम्बन्ध; और वे सम्बन्ध उन उन सर्जन पानेवाले ही आत्मा वगैरह में हो, इस के मूल में उन आत्मा आदि में रही हुई कोई विशिष्टता अर्थात् योग्यता निमित्तभूत हैं। ऐसी योग्यता याने कर्तृत्वशक्ति यदि उनमें न हो तो निश्चित है कि कर्म-अणु आदिके साथ उनका सम्बन्ध नहीं हो सकेगा।
शायद आप पूछ सकते हैं, 'यह भी क्यों ?'
१.कर्म कार्मण नामक पुद्गल द्रव्य से बनते हैं। मिथ्यात्व-अव्रत-कषायादि के कारण, आत्मा के साथ उनका संबन्ध होता है और उस समय उनमें चार वस्तुएँ निश्चित होती हैं। १. उन कर्मों के विभाग हो कर कौन कौन कर्म आत्मा के स्वभावगत ज्ञान दर्शन, सहज असायोगिक सुख, तत्त्व श्रद्धा, चारित्र इत्यादि के आवारक अर्थात् आच्छादक प्रकृति वाले होंगे, अर्थात् कौन कौन कर्म ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय वगैरह होंगे; यह यह जो निश्चित होता है वह प्रकृतिबन्ध है। २. वे कर्म कितने काल तक आत्मा में रह कर
अपना विपाक याने फल दिखलायेंगे, यह निर्णित होना, यह स्थितिबन्ध है।३. कर्मों का विपाक भी कितना उग्र या मंद होगा, इसका निर्णय जिससे हो, वह रसबन्ध ( अनुभागबन्ध ) है। ४. कर्मों में जो भिन्न भिन्न अणुओं का दल तय होता हैं वह प्रदेशबन्ध कहलाता है।
२. वे कर्म अपनी अपनी काल स्थिति के परिपाक स्वरूप जब आत्मा को अपना फल दिखलाते हैं तब उन कर्मो का उदय हुआ ऐसा कहा जाता है।
३. इन कर्मों के परिपाक की स्थिति यों तो अभी बाकी है फिर भी आत्मा अध्यवसाय विशेष से उन्हें हठात् खींचकर जो उदय प्राप्त किया जाता है वह है उनकी उदीरणा।
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