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(ल.) न च तत्तत्कण्विादेरेव तत्स्वभावतया आत्मनस्तथासम्बन्धसिद्धिः, द्विष्ठत्वेनास्योभयोस्तथास्वभावापेक्षितत्वात्; अन्यथा कल्पनाविरोधात्, न्यायानुपपत्तेः । न हि कर्माण्वादेस्तथाकल्पनायामप्यलोकाकांशेन सम्बन्धः, तस्य तत्सम्बन्धस्वभावत्वायोगात् ।
(पं०) - अथ पराशङ्कां परिहरन्नाह 'न च' = नैव तत्, यदुत 'तत्तत्काण्वादेरेव' उक्तरूपस्य, 'तत्स्वभावतया' = स आत्मना सह सम्बन्धयोग्यतालक्षणः स्वभावो यस्य तत्तथा (=तत्स्वभावः), तद्भावस्तत्ता (=तत्स्वभावता) तया, 'आत्मनो' =जीवस्य, 'तथा' =संबन्धयोग्यतायामिवास्मदभ्युपगतायां, 'सम्बन्धसिद्धिः' काण्वादेरिति । कुत इत्याह 'द्विष्ठत्वेन' व्याश्रयत्वेन, 'अस्य' =सम्बन्धस्य, 'उभयोः' =आत्मनः काण्वादेश्च, 'तथास्वभावापेक्षितत्वात्' =सम्बन्धयोग्यस्वरूपापेक्षित्वात् । विपक्षे बाधकमाह 'अन्यथा' आत्मनः सम्बन्धयोग्यस्वभावाभावे, कल्पनाविरोधात्' ='कर्माण्वादेखि स्वस्म्बन्धयोग्यस्वभावेन आत्मना (सह) सम्बन्धसिद्धि:'. इति कल्पनाया व्याघातात् । कुत इत्याह 'न्यायानुपपत्तेः', न्यायस्य = शास्त्रसिद्धदृष्टान्तस्यानुपपत्तेः; 'न च तथा सम्बन्धसिद्धि'रिति योज्यम् । न्यायानुपत्तिमेव भावयन्नाह 'न' = नैव, 'हिः' = यस्मात्, 'कण्विादेः' उक्तरूपस्य, 'तथाकल्पनायामपि' =अलोकाकाशसम्बन्धयोग्यस्वभावकल
यामपि' =अलोकाकाशसम्बन्धयोग्यस्वभावकल्पनायामपि कि पनस्तदभाव इति 'अपि' शब्दार्थः । किमित्याह 'अलोकाकाशेन' प्रतीतेन, 'सम्बन्धः' =अवगाह्यावगाहकलक्षणः, कुत एवं इत्याह - 'तस्य तत्सम्बन्धस्वाभावत्वायोगात्' तस्य=अलोकाकाशस्य तेन काण्वादिना सम्बन्धस्वभावत्वं तस्यायोगात् ।
उ०—संसार अनादि है लेकिन प्रवाहकी दृष्टि से, अर्थात् वह कई जन्मों की अनादि काल से चली आई एक धारा है। इसमें प्रत्येक जन्म के प्रति भिन्न भिन्न चित्रविचित्र कर्माणुओं का संबन्ध कारण है । यह संबन्ध सामान्य संयोगरूप नहीं किन्तु आत्मप्रदेश और कर्मप्रदेश परस्परके एक रूप-सा, संबन्ध स्वरुप संयोग होता है। 'कर्माणु' का मतलब है ज्ञानावरणीयादि कर्मरूपमें परिणमन के योग्य पुद्गल द्रव्य।
प्रश्न उठता है कि 'वह सम्बन्ध आकाश से क्यों नहीं हुआ, आत्मा के साथ ही क्यों हुआ।' अगर कहा जाए 'आंकाश चेतन नहीं, आत्मा चेतन है इसलिए आत्मा के साथ ही सम्बन्ध हो सकता है;' तो भी विचारणीय है कि 'तो फिर मुक्त आत्मा के साथ कर्माणुका सम्बन्ध क्यों नहीं होता? वह तो चेतन है न?' .
__यहां सांख्यदर्शन कहेगा कि "मुक्त आत्मा को विवेकख्याति यानी 'प्रकृतिसे मैं पृथग् हूं भिन्न हूं,' ऐसा भेदज्ञान हो गया है, जब कि भ्रमाधीन संसारी आत्मा को यह नहीं हुआ है इसलिए प्रकृति का संसार संसारीमें आरोपित होता है, मुक्त आत्मामें नहीं।" ।
लेकिन सांख्यों को यही सोचने योग्य है कि जब आत्मा सदा शुद्ध एवं कुटस्थ नित्य ही है, तब संसारी जीवमें भी भ्रम कैसा? उसे अगर वह प्राप्त हो सके तो मुक्त जीवमें भी पुनः भ्रम क्यों न हो? इसी वास्ते जैनशासन यह तत्त्व-दर्शन कराता है कि संसारी आत्मामें कर्म-प्रकृति का सम्बन्ध होने की कोई योग्यता अवश्य माननी होगी कि जिसकी वजह से सिद्ध होगा कि इसके साथ ही कर्मसम्बन्ध हो सकता है। अलबत्ता योग्यता एक तरह की होने पर भी, अन्यान्य मिथ्यात्वादि कारण-सामग्री वश भिन्न भिन्न कर्माणुओं का सम्बन्ध आत्मा के साथ हो सकता है। मात्र कर्माणु सम्बन्ध का ही क्या, उन उन कर्मो के १. प्रकृतिबन्ध-स्थितिबन्ध-रसबन्धप्रदेशबन्ध, एवं २. उदय, ३. उदीरणा वगैरह उत्पन्न होने में कारणभूत द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके भी संबन्ध, - जिसमें शरीर मन आदिका भी संबन्ध समाविष्ट होता है, उन्हें होने के लिए भी आत्मामें योग्यता माननी आवश्यक
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