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________________ ल०-अन्यथाऽधिकृतप्रपञ्चासम्भवः प्रस्तुतयोग्यतावैकल्ये प्रक्रान्तसम्बन्धासिद्धेः, अतिप्रसङ्गदोषव्याघातात्, मुक्तानामपि जन्मादिप्रपञ्चापत्तेः, प्रस्तुत योग्यताऽभावेपि प्रक्रान्तसम्बन्धाविरोधादिति परिभावनीयमेतत् । (पं०)- विपक्षे बाधकमाह 'अन्यथा' = अकर्तृत्वे, 'अधिकृतप्रपञ्चासम्भवः' = विश्वस्यात्मादिगामिनो जन्मादिप्रपञ्चस्यानुपपत्तिः । कुत इत्याह प्रस्तुतयोग्यतावैकल्ये', 'प्रस्तुतायाः' = अनादावपि भवे तदा तदा तत्तत्काण्वादिसंबन्धनिमित्ताया योग्यतायाः, कर्तृत्वलक्षणायाः, ('वैकल्ये'=) अभावे, 'प्रक्रान्तसंबन्धासिद्धेः', 'प्रक्रान्तैः' = प्रतिविशिष्टैः कर्माण्वादिभिः, 'सम्बन्धस्य' उक्तरूपस्य (असिद्धेः=) अनिष्पत्तेः । एतदपि कुत इत्याह ‘अतिप्रसङ्गदोषव्याघाताद्,' एवमभ्युपगमे यो ऽतिप्रसङ्गः' = अतिव्याप्तिः, स एव 'दोषः' अनिष्टत्वात्, तेन 'व्याघातो' = अनिवारणं प्रकृतयोग्यतावैकल्ये प्रस्तुतसम्बन्धस्य, तस्मात् । अतिप्रसङ्गमेव भावयति 'मुक्तानामपि' = निर्वृतानामपि, आस्तामन्येषां, 'जन्मादिप्रपञ्चापत्तेः' = जन्मादिप्रपञ्चस्यानिष्टस्य प्राप्तेः, कुत इत्याह - 'प्रस्तुतयोग्यताऽभावेऽपि' = प्रस्तुतयोग्यतामन्तरेणापि, 'प्रक्रान्तसम्बन्धाविरोधात्' = तत्तत्कर्माण्वादिभिः सम्बन्धस्यादोषाद्, आत्माऽकर्तृत्ववादिनाम्, इत्येवमन्वयव्यतिरेकाभ्यां भावनीयमेतत् । नित्य भी त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुणों में विषय अंश होनेसे वही बुद्धितत्त्व यानी महत्तत्त्व रुप में परिवर्तित होती रहती है। यों बुद्धि प्रकृति का ही एक परिणाम है। बुद्धिमें से अहंकार तत्त्व और अहंकारसे शब्द-रुप-रस-गंधस्पर्श इन पांचो की सूक्ष्म पंच तन्मात्रायें उत्पन्न होती हैं । तन्मात्राओं से एक ओर पृथ्वी-पानी-अग्नि-वायुआकाश ये पांच भूत, और दूसरी ओर श्रोत्र-चक्षु-रसना-घ्राण-स्पर्शन ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, वाणी-हस्त-पैरगुदा-लिङ्ग ये पांच कर्मेन्द्रियाँ, और अन्तःकरण यानी मन नामकी आभ्यन्तर इन्द्रिय, इस प्रकार एकादश इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। सब मिलाके २४ प्रकृति के तत्त्व और १ पुरुष, यों २५ तत्त्व सांख्य मानते हैं। ये कहते हैं कि बुद्धि तत्त्व दर्पणके समान स्वच्छ होने से इसमें पुरुषका सिर्फ प्रतिबिम्ब पडता है लेकिन वह भ्रान्ति से मान लेता है कि बुद्धि के सभी कार्य मैं करता हूं। दरअसल उन कार्योंको बुद्धि ही करती है क्यों कि वे बुद्धिके ही परिणाम हैं। अगर पुरुष के परिणाम होते तो पुरुष कुटस्थ नित्य नहीं रह सकता; और विना कुटस्थ-नित्यता चैतन्य भी कहां से सुरक्षित रह सकता? इतना ही नहीं, चैतन्य भी पुरुष का ही है किन्तु जड भावों का नहीं यह किस आधार पर? सबब पुरुषमें कुटस्थ नित्यता होने की वजह ही चैतन्य है एवं कर्तृत्व नहीं है। सांख्यमत का निराकरणः जैनमत का प्रदर्शन जैनदर्शन कहता है कि सांख्यों का यह कथन कि 'आत्मा कर्ता नहीं हैं'- वह युक्तियुक्त नहीं है, क्यों कि आत्मामें कर्तृत्व होता हैं। इसीलिए अरहंत प्रभु को 'आदिकर' विशेषण दिया गया है, 'आदिकर' माने जन्म लेनेवाल। यह भी एकवार नहीं, किन्तु बारबार। यह बात ललितविस्तराकार ने 'आदिकर' शब्द का 'आदिकरणशील' अर्थ लेकर स्पष्ट किया है। इसका अर्थ है, जन्म-करण के स्वभाववाले, अर्थात् कई वार जन्मते रहनेवाले । परमात्मा होने के पूर्व में सामान्य आत्माकी तरह कई जन्म संसार में पा चुके हैं। उनकी आत्मा कई जन्मों की कर्ता बन आई है। प्र०-आत्मा का संसार तो अनादिसे चला आ रहा है, फिर आत्माका कर्तृत्व कैसे? ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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