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उ०- उपकार दो प्रकारका होता है; १. द्रव्य-उपकार एवं २. भाव-उपकार । द्रव्यउपकार में दूसरों को बाहिरी लाभ पहुंचाना; जैसे कि धन-आजीविका-औषध वगैरहकी सहायता करना, यह द्रव्य उपकार है। जब भाव-उपकार में अन्य को आत्मिक लाभ कराना होता है। जैसे कि पापत्याग, पुण्यार्जन, दुर्गतिनिरोध, सन्मतिसमता-समाधि, धर्म के प्राप्ति-वृद्धि इत्यादि का लाभ पहुंचाना । श्री अर्हत् परमात्मा के द्वारा यह भाव उपकार श्रेष्ठ रूपमें किया जाता है; इसलिए उनमें भाव संपत्ति अर्थात् आभ्यन्तर समृद्धि सहज रूपसे है। यह भगवंताणं' पद से निर्दिष्ट होती है। 'भगवंत' शब्द का अर्थ है भग वाले।
प्र०- ‘भग' शब्द से क्या कहना चाहते हैं ?
उ०- भगका अर्थ समग्र ऐश्वर्य आदि होता है। कहा है कि, ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना ॥'
अर्थात् १ समग्र ऐश्वर्य, २ रुप, ३ यश, ४ श्री, ५ धर्म, एवं ६ प्रयत्न, छ:की 'भग' संज्ञा होती है। 'भग' शब्द के ये छ:ही अर्थ होते हैं । अरहंत परमात्मामें इस प्रकार मिलते हैं।
(१) समग्र ऐश्वर्य परमात्मा में इन्द्रों द्वारा किये गए महाप्रातिहार्य की विभूतिस्वरूप होता है। यह इन्द्रों से भक्ति एवं नम्रभाव वश किया जाता है; और पुण्यानुबन्धी अर्थात् पुण्यकी परंपरा देने वाली भव्य शुभ आत्मपरिणतिका अर्जक भी होता है।
प्र०- प्रातिहार्य कौन से है?
उ०- १ सिंहासन, २ चामर, ३ भामंडल, ४ छत्र, ५ अशोकवृक्ष, ६ सुरपुष्पवृष्टि, ७ दिव्यध्वनि, ८ देवदुन्दुभि,—ये आठ प्रातिहार्य हैं। (१) अर्हत् परमात्मा को बैठने के लिए रत्नमय सिंहासन सदा साथ ही रहता है। चलते समय वह आकाश में साथ चलता है। (२) प्रभु के दोनों ओर चामर सदा घुमते रहते हैं। (३) प्रभु के शिर के पीछे भव्य तेजका गोलाकार पुञ्ज, जिसका नाम भामंडल होता है, वह सदा चमक उठता है। (४) अरहंत नाथ के उपर गगन में मोतियों के झुमके से अलंकृत तीन छत्र सदा साथ रहते हैं । (५) देवाधिदेव अर्हत् की उपदेशभूमि, जो समवसरण कहलाती है, जिसके उपर सदा समस्त पर्षदाको छाया देनेवाला अशोकवृक्ष बीचमें रहता हैं । (६) परमात्मा के आसपास चारों और देवता सुगन्धित पुष्पवृष्टि करते हैं । (७) समवसरणमें यों तो जगद्गुरु अरहंत देव उत्कृष्ट मधुरतम मालकोश रागमें देशना देते हैं, फिर भी देवता भक्तिवश उसमें बंसरीसे दिव्यध्वनि का सुर पूरते हैं । (८) वहीं भव्य जीवों के लिए मोक्षपुरी के सार्थवाह समान श्री अरहंत परमात्मा के आश्रय ग्रहणार्थ भव्यों को आने का सूचन करती देव-दुन्दुभि गगनमें बजती है।
अष्ट प्रातिहार्य के अलावा भी, श्री अर्हत्प्रभु की देशना के लिए रजत -सुवर्ण - रत्नमय तीन गृढों के समवसरणकी रचना, चलते समय प्रभु के पैर रखने के पूर्व नीचे मृदु सुवर्णकमलों का आयोजन; इत्यादि असाधारण पूजा होती है।
(२) रू प तो इतना अलौकिक होता है, कि इसे समझने के लिए यह दृष्टान्त दिया जाता है कि यदि विश्व के सर्व देवताओं द्वारा अपने दिव्य प्रभावसे सभी के रूप सम्मिलित किये जाएँ और कुल पिंड को भी संकुचित करते करते एक अङ्गष्ट के समान बनाया जाए, तब भी वह परमात्मा के रूप के सामने एक अंगार-सा भासेगा; इतना सुन्दरतम प्रभु का रूप, चौत्तीस अतिशयों में से मात्र एक रूप नाम के अतिशय जन्मसिद्ध होता है।
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