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(३) यश भगवान का यावच्चन्द्र-दिवाकर प्रतिष्ठित होता हैं, क्यों कि वह, दुर्जेय ऐसे राग-द्वेष - परीसह - उपसर्गादि के आक्रमण में अतुल विजयवंत पराक्रम प्रगट करने से उत्पन्न होता है।
(४) श्री याने शोभा प्रभु में उत्कृष्ट कोटिकी होती है। वह ज्ञानावरण आदि चार घाती कर्मों के नाश करने का जो पराक्रम है, उस के द्वारा प्राप्त केवलज्ञान और अनुपम उत्कृष्ट सुखसंपत्ति से समन्वित होती है; युक्त होती है।
(५) धर्म भी श्रीअर्हत्प्रभु में अवश्य विद्यमान है, जो कि सम्यग्दर्शन आदि स्वरूप होता है, जो दान, शील, तप एवं भावनामय होता है, जो साश्रव और अनाश्रव इन दो प्रकार का कहा जाता है, और महायोगात्मक होता है।
प्र०- सम्यग्दर्शनादि तो गुण है, धर्म कैसे?
उ०- यहां सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र को धर्म स्वरूप इसीलिए बतलाया कि ये तीनों ही मोक्ष के उपाय हैं; और मोक्ष के उपाय तो अवश्य धर्म कहलाते ही हैं। सम्यग्दर्शन तत्त्वपरिणति स्वरूप होता है; सम्यग्ज्ञान तत्त्वप्रकाश स्वरूप होता है; और सम्यक् चारित्र तत्त्वसंवेदनात्मक है, जिस में चरणसित्तरि के ७० मूल गुण एवं करणसित्तरि के ७० उत्तरगुणों का पालन समाविष्ट होता है।
प्र०-दान, शील वगैरह धर्मो से क्या क्या लिए जाते हैं ?
उ०- दान में जीवों को अभयदान, ज्ञानदान, और धर्मसामग्रीका प्रदान, समाविष्ट होता है। शील धर्ममें सम्यक्त्व के ६७ व्यवहार, अहिंसादि व्रत, ईर्यासमिति-भाषासमिति वगैरह पंच समिति एवं मनोगुप्ति आदि तीन गुप्ति, इत्यादि आचार अन्तर्भूत होते हैं । तप-धर्म में अनशन आदि षड्विध बाह्य एवं प्रायश्चित्तादि षड्विध आभ्यन्तर तप गिने जाते हैं। भावना धर्ममें अनित्यता -अशरणता-संसार आदिकी अनुप्रेक्षा, तत्त्वका चिंतन, मैत्री आदि की ४ भावना, संवेग वैराग्य, आदि कई प्रकार यावत् वीतरागता तक सिद्ध करनेका होता है।
प्र०- साश्रव धर्म और अनाश्रव धर्म का क्या तात्पर्य है ?
उ०- प्रवृत्ति रूप धर्म साश्रव धर्म है, और निवृत्ति रूप धर्म निराश्रव धर्म है। परमात्मा में प्रवृत्ति धर्म, भूतल पर पैदल विहरना, धर्मोपदेश करना, सम्यक्त्वादि धर्मका दान करना वगैरह स्वरूप होता है; और निवृत्ति धर्म हिंसा-असत्यादि एवं राग-द्वेषादिसे सर्वथा निवृत्त हो जाना, इत्यादि होता है। प्रवृत्ति-धर्म से आत्मा में शाता वेदनीय नामक शुभ पुण्य कर्म का स्रोत वह आता है इसलिए वह साश्रव धर्म कहलाता है। निवृत्ति धर्म द्वारा ज्ञानावरण आदि समस्त पाप कर्मो का आश्रवण बन्द हो जाने से वह अनाश्रव धर्म याने निराश्रव धर्म कहा जाता है।
प्र०- महायोगात्मक धर्म से क्या तात्पर्य है?
उ०- योग कई प्रकार के होते हैं, जैसे कि इच्छायोगादि । 'योगबिन्दु' शास्त्र में अध्यात्म-भावनाध्यान-समता-वृत्तिसंक्षय, इन पांच प्रकार का योग कहा गया है । 'योगदृष्टि समुच्यय' शास्त्र में मित्रा-तारा इत्यादि आठ दृष्टि स्वरूप योग बतलाया है, इनमें यम-नियम आदि से संप्रज्ञात-असंप्रज्ञात समाधि पर्यन्त अष्टाङ्गयोग, अद्वेष-जिज्ञासा से लेकर प्रवृत्ति तक का योग, एवं अखेद-अनुद्वेग आदि से अनासङ्ग पर्यंत योग समाविष्ट किये गये हैं। 'विंशति विशिका' ग्रन्थ के 'योग विशिका' प्रकरण में स्थान-उर्ण-अर्थ-आलंबन
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