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________________ भगवंताणं ( ल० )-तत्र भावोपकारकत्वेन भावार्हत्संपरिग्रहार्थमाह 'भगवद्भ्य' इति । तत्र ' भगः' समग्रैश्वर्यादिलक्षणः । उक्तं च, '१ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य २ रूपस्य ३ यशसः ४ श्रियः । ५ धर्म्मस्याथ ६ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना ॥ ' (१) समग्रं चैश्वर्यं भक्तिनम्रतया त्रिदशपतिभिः शुभानुबन्धि महाप्रातिहार्यकरणलक्षणम् । ( २ ) रूपं पुनः सकलसुरस्वप्रभाव-विनिम्मिताङ्गुष्टरू पाङ्गारनिदर्शनातिशयसिद्धम् । ( ३ ) यशस्तु रागद्वेषपरिषहोपसर्गपराक्रमसमुत्थं त्रैलो क्यानन्दकार्याकालप्रतिष्ठम् । ( ४ ) श्रीः पुनः घातिकर्मोच्छेदविक्रमावाप्तकेव लालोक-निरतिशयसुखसम्पत्समन्विता ( प्र०..... न्वितता ) परा । (५) धर्मस्तु सम्यग्दर्शनादिरू पो दानशीलतपोभावनामयः साश्रवानाश्रवो महायोगात्मकः । ( ६ ) प्रयत्नः पुनः परमवीर्यसमुत्थ एकरात्रिक्यादिमहाप्रतिमाभावहेतुः समुद्घातशैलेश्यवस्थाव्यङ्ग्यः समग्र इति । अयमेवंभूतो भगो विद्यते येषां ते भगवन्तः । तेभ्यो भगवद्भ्यो नमोऽस्त्विति, एवं सर्वत्र क्रिया योजनीया । तदेवंभूता एव प्रेक्षावतां स्तोतव्या इति स्तोतव्यसम्पत् ( इति १ संपत् । ) 'नाम अरहंत':- किसी पुरुषका 'अरहंत' नाम रखा जाता है तो वह भी अरहंत कहलायेगा; अत: यह नाम-निक्षेप है। अर्थात् वह सिर्फ नाम - अरहंत है । इस में अरहंत परमात्मा का, सिवाय नाम, अन्य कोई सम्बन्ध नहीं । 'स्थापना अरहंत': अरहंत परमात्माकी जिस प्रतिमा में या चित्र आदि में स्थापना की जाए यह स्थापना अरहंत हैं और वह मूर्ति आदि 'अरहंत' शब्दसे संबोधित होती है। - 'द्रव्य अरहंत' अरहंत परमात्मा जब से यहां जन्म पाते हैं, जन्म ही क्या, माता के गर्भ में आते हैं, तब से वे अरहंत शब्द के अर्थ से संपन्न न होते हुए भी अरहंत कहलाते है; वे हैं द्रव्य अरहंत । 4 'भाव अरहंत' जब वे अरहंत पद के अर्थ से ठीक ही संपन्न होते हैं तब वे भाव अरहंत है। अरहंत पद का अर्थ है, देवता वगैरह की अष्ट प्रातिहार्यादि महापूजा की पात्रता । प्र०- यदि जन्म पर नहीं, तो वे भाव अरहंत कब होते हैं ? उ०- केवल ज्ञान पाने पर अर्थात् वीतराग सर्वज्ञ - सर्वदर्शी बनने पर तीर्थंकर नामकर्म स्वरूप उत्कृष्ट पुण्यका उदय होने से ऐसी योग्यता याने अरहंतपन अमल में आता है । भगवंताणं नाम अरहंत आदि चार निक्षेपां में से भावअरहंत भाव उपकार करते हैं, और वे भाव अरहंत की संपत्ति से युक्त होने के नाते ही भाव अरहंत है, इसलिए उन्हीं संपत्तियों के परिग्रहार्थ 'अरहंताणं' पद के साथ 'भगवंताणं' यह पद देते हैं । प्र० - भावोपकार का क्या अर्थ है ? Jain Education International ५८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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