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अरहंताणं
(ल०) - ( 'अरहंताणं' - अर्हद्भ्यः ) एते चार्हन्तो नामाद्यनेकभेदाः, 'नाम - स्थापना- द्रव्यभावतस्तन्यासः' (तत्त्वार्थ० १ ५ ) इति वचनात् ।
'इक्को वि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥
अर्थात् 'जिनवरों में वृषभ समान वर्द्धमान स्वामी को किया गया एक भी नमस्कार पुरुष या स्त्री को संसारसागर से पार करता है'- - इस में ऐसे नमस्कार को सीधा संसारतारक कहा जाता है, इस से सूचित होता है कि यह सामर्थ्ययोग नमस्कार का कथन है। क्यों कि विना सामर्थ्ययोग संसारतरण नहीं हो सकता । सामर्थ्ययोग से ही ऐसा नमस्कार निष्पन्न हुआ कि जिस से भवतरण हुआ ।
प्रo - तब तो नमस्कार ही संसारका तारक हुआ न ? सामर्थ्ययोग तारक कैसे ? सामर्थ्ययोग तो नमस्कार का कारण हुआ ।
उ०- 'कारणे कार्योपचारः' अर्थात् कारण में कार्य शब्द का प्रयोग हो सकता है, - इस न्याय से, कारणभूत सामर्थ्ययोग को कार्यभूत नमस्कार के 'संसारतारक' अभिधान से बोल सकते हैं ।
प्रातिभज्ञान :
प्र० - पहले जो कह आयें कि प्रातिभज्ञान युक्त सामर्थ्ययोग के द्वारा केवलज्ञान होता हैं वहां प्रातिभज्ञान क्या चीज है ? पांचो ज्ञान में न तो एसा कोई ज्ञान गिना गया है या न तो मतिज्ञान - श्रुतज्ञान - अवधिज्ञानमन:पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान, इन पांचको छोड कर कोई अन्य भी ज्ञान कहा गया है, जिससे प्रातिभ नामका कोई ज्ञान कहा जाए ।
उ०- मतिज्ञान से लेकर मनःपर्याय ज्ञान तक के चार ज्ञान उत्कृष्ट रूपमें होने के अनन्तर और केवलज्ञान होने के पूर्व प्रातिभ ज्ञान होता है; और वह, केवलज्ञान स्वरुप सूर्य के उदय में उसके पूर्व प्रकाश अरुणोदय के सदृश होने से उसको मतिज्ञानादिसे अलग करके सुनने में नही आता। लेकिन वह होता है जरूर, क्यों कि केवलज्ञान के पूर्व ऐसी चार ज्ञान की उत्कृष्ट अवस्था संगत हो सकती है; और वहीं विशिष्ट अवस्था नाम प्रातिभ ज्ञान है । अस्तु, अब इस विचार पर विस्तार नहीं करेंगे।
'नमोत्थु णं' पदोंके अर्थ बतलाते समय विविध पूजा दिखलाई गई; और नमस्कार की प्रार्थना के प्रसङ्ग में इच्छायोगादि तीन योगों का स्वरूप प्रदर्शित किया ।
अरहंताणं
'नमोऽत्थु णं' पदों की व्याख्या की गइ। अब 'अरहंताणं' पद की व्याख्या करते हैं
ये अर्हत्परमात्मा (अरहंत) नामअरहंत आदि अनेक प्रकारों के होते हैं। क्यों कि तत्त्वार्थाधिगम महाशास्त्र में कहा गया है कि जीव, अजीव आदि सभी पदार्थों के, कम में कम, नाम-स्थापना - द्रव्य-भाव, इस प्रकार चार निक्षेप याने विभाग होते हैं; उदाहरणार्थ नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव और भावजीव ।
प्रस्तुत में, अरहंत के चार निक्षेप होते हैं, नामअरहंत, स्थापना अरहंत, द्रव्यअरहंत, और भाव अरहंत ।
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