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(४) अनुकम्पा है जगत के दुःखपीडित जीवों के प्रति द्रव्यदया और पापपीडित जीवों के प्रति भावदया; जिसमें उनके दुःख एवं पापोंका नाश करने की अभिलाषा बनी रहती है।
(५) आस्तिक्यमें हृदय के भीतर सर्वज्ञ श्री जिनेन्द्रदेव के सभी वचन बिलकुल सत्य और निःशंक होने की प्रतीति होती है।
___ तत्त्वज्ञ लोग कहते हैं कि प्रशम, संवेग आदि गुणों का उल्लेखक्रम उत्पत्ति की दृष्टि से नहीं किन्तु प्रधानता की दृष्टि से है। सर्वप्रधान प्रशम प्रथम है, संवेग दूसरे नंबर में है,..... यावत् आस्तिक्य पांचवे नंबर में आता है। इनकी उत्पत्तिका क्रम पश्चानुपूर्वी से है। अर्थात् आस्तिक्य प्रथमतः उत्पन्न होता है, बाद में तात्त्विक अनुकम्पा, इसके आधार पर तात्त्विक निर्वेद, ततः तात्त्विक संवेग, और इसके आधार पर तात्त्विक प्रशम उत्पन्न होता है।
यह हुई प्रथम अपूर्वकरण की बात । इसमें विशिष्ट आत्मवीर्योल्लास अपेक्षित है।
द्वितीय अपूर्वकरण:- सामर्थ्ययोग प्रथम अपूर्वकरण में आवश्यक नहीं है और वहां उत्पन्न भी नहीं हो सकता । वह तो द्वितीय अपूर्वकरण में होना शक्य है। प्रथम अपूर्वकरण से लभ्य सम्यग्दर्शन के काल में आत्मा के प्राग् उपार्जित कर्मबन्धनों की कालस्थिति अन्तःकोटाकोटि सागरोपमों की रहती है। विशिष्ट शुभ अध्यवसाय के बल पर उस स्थिति में से पल्योपम-पृथक्त्व-प्रमाण कालस्थिति का ह्रास होने से आत्मा में देशविरति गुण याने श्रावकयोग्य स्थूल अहिंसा-सत्य आदि अणुव्रत की परिणति उत्पन्न होती है। इस अवशिष्ट कालस्थिति में से भी जब संख्येय सागरोपम प्रमाण कालमान कम हो जाता है तब सर्वविरति गुण प्रगट होता है, अर्थात् मुनियोग्य सूक्ष्म अहिंसादि महाव्रत की आत्म-परिणति उत्पन्न होती है।
इससे आगे उस कालस्थिति में से भी संख्यात सागरोपम-प्रमाण स्थिति नष्ट हो जाने पर द्वितीय अपूर्वकरण प्राप्त होता है। और यह अपूर्वकरण सामर्थ्ययोग से साध्य है। इस द्वितीय अपूर्वकरण द्वारा विशिष्ट कर्मक्षय की धारा जिसे क्षपक श्रेणी कहते हैं, वह चालु हो जाती है। तो इस प्रकार द्वितीय अपूर्वकरण प्राग्बद्ध कर्मपुद्गलों की तथाविध कालस्थिति में संख्येय सागरोपम-प्रमाण अतिक्रमण अर्थात हास होने पर द्वितीय अपूर्वकरण उत्पन्न हुआ। यह होनेमें तात्विक याने पारमार्थिक धर्मसंन्यास नामक प्रथम सामर्थ्ययोग कारणभूत होता है।
प्र०-यहां तात्त्विक धर्मसंन्यास कहा, तो क्या अतात्त्विक धर्मसंन्यास भी कोई चीज है ?
उ०- हां, मनुष्य जब संसारत्याग की संन्यासदीक्षा अर्थात् प्रव्रज्या अङ्गीकार करता है, तब उसमें समस्त सावध व्यापारोंका त्याग होता है; याने सूक्ष्मतर भी पापप्रवृत्ति न करने की प्रतिज्ञा होती है। यहां सावधप्रवृत्ति रूप धर्मों का त्याग जो हुआ वह एक प्रकारका धर्मसंन्यास तो हुआ ही, लेकिन वह अतात्त्विक है; तात्त्विक नहीं है; अर्थात् शाश्वतिक नहीं है; क्यों कि वह इस प्रकार अस्थिर है, :- प्रव्रज्या हिंसादि पापयोगों के और रागादि मोहयोगों के त्याग रूप एवं ज्ञानयोग के स्वीकार रूप है। वहां अशुभ धर्मो के संन्यास से, ज्ञानयोग में अलबत्ता क्षमा-मृदुतादि दशविध यतिधर्म, एवं ज्ञानाचार आदि पवित्र पंचाचारों के गुण उत्पन्न होते हैं; लेकिन पूर्व कह आयें उस प्रकार ये धर्मसंन्यास और ये क्षमादिगुण क्षायोपशमिक होने के नाते शाश्वत-स्थायी नहीं हो सकते हैं। जब कि क्षायिक क्षमादि धर्मों से उन क्षायोपशमिक क्षमादि धर्मों की निवृत्ति यानी संन्यास किया जाय, तो वह धर्मसंन्यास शाश्वतिक हो जाता है; अतः वही तात्त्विक है।
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