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________________ (ल०) - अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः । मोक्षयोजनभावेन सर्वसंन्यासलक्षणः ॥९॥ इत्यादि ('योगदृष्टिसमुच्चय' श्लोक ३-११) (पं०) 'अतस्तु' इत्यादि, 'अत एव'= शैलेश्यवस्थायां योगसंन्यासात्कारणात्, 'अयोगो'= योगाभावो, 'योगानां'-मैत्र्यादीनां, 'मध्ये' इति गम्यते, योगः' 'पर': = प्रधानः उदाहृतः । कथमित्याह 'मोक्षयोजनभावेन' हेतुना, 'योजनात् योग' इति कृत्वा, स्वरूपमस्याह 'सर्वसंन्यासलक्षणो', अधर्मधर्मसंन्यासयोरप्यत्र परिशुद्धिभावात्। 'इत्यादि' शब्दाद् 'एतत्त्रयमनाश्रित्य विशेषेणैतदुद्भवाः । योगदृष्टय उच्यन्ते अष्टौ सामान्यतस्तु ताः ॥ १ ॥ १ मित्रा-२ तारा-३ बला-४ दीप्रा-५ स्थिरा-६ कान्ता-७ प्रभा-८ परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ २ ॥ इत्यादि ग्रन्थो दृश्यः । (योगदृष्टिसमुच्चये श्लो० १२-१३) योगत्रयघटनाः - (ल.) तत्र, 'नमोऽर्हद्भ्यः ' इत्यनेनेच्छायोगाभिधानम्, 'नमो जिनेभ्यो जितभयेभ्य' इत्यनेन तु वक्ष्यमाणेन शास्त्रयोगस्य, निर्विशेषेण सम्पूर्ण 'नमो' मात्राभिधानात्; विशेषप्रयोजनं चास्य स्वस्थान एव वक्ष्याम इति । तथा, 'इक्कोवि णमोक्कारो ('नमुक्कारो' प्र०) जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा॥१॥ इत्यनेन तु पर्यन्तवर्तिना सामर्थ्ययोगस्य, कारणे कार्योपचारात्, न संसारतरणं सामर्थ्ययोगमन्तरेणेति कत्वा । यह क्षपक श्रेणी भी सामर्थ्ययोग से द्वितीय अपूर्वकरण द्वारा ही की जा सकती है। अतः इस प्रकार प्रतिपादन किया कि तात्त्विक धर्मसंन्यास द्वितीय अपूर्वकरणमें होता है। आयोज्यकरण: सामर्थ्ययोग से साध्य 'योगसंन्यास' नामक द्वितीय संन्यास आयोज्यकरणके बाद होता है। आयोज्यकरण उसे कहते हैं जिस क्रियामें अवशिष्ट भवोपग्राही कर्म विशिष्ट अवस्थापन किये जाते हैं। यह क्रिया, अनन्तज्ञेयप्रकाशी केवलज्ञान के प्रकाश से, अवशिष्ट भवोपग्राही कर्मो, अर्थात् संसार समर्थक वेदनीयकर्म, आयुष्यकर्म, नामकर्म, और गोत्रकर्म, -इन चारों को देखकर, केवलज्ञान की सहचारी अचिन्त्य शक्ति के तौर पर की जाती है। वहां कर्मो को विशिष्ट अवस्थापन्न किया जाता है। यह विशिष्ट अवस्था उसे कहते है जिस में अवशिष्ट कर्मो का उस-उस योग्य समय क्षय हो । और कर्मो की ऐसी क्षययोग्य अवस्था उपस्थित करने की क्रियाका प्रयत्न आयोज्यकरण है। तत्पश्चात् योगसंन्यास होता है। शैलेशीकरण : पहले कह आये कि स्थूल एवं सूक्ष्म मन-वचन-कायाकी सभी प्रवृत्तियाँ, जो योग कहलाती है, उनका सर्वांश त्यागं यह संन्यास है। यह योगसंन्यास मोक्ष-प्राप्ति के उतने निकट काल में उत्पन्न होता है कि जितना समय पञ्च हुस्वाक्षरके उच्चारणमें लगे । योगसंन्यास में आत्मा की मेरुपर्वत की भांति, निष्प्रकंप अवस्था हो जाती है। मेरु को शैलेश कहा जाता है, इसलिये आत्मा की शैलेश जैसी स्थिति निर्मित करना यह शैलेशीकरण है। यहां ध्यान रहे कि जिस प्रकार उबलते जलके अन्दर रहा हुआ कपडा कांपता रहता है, इस प्रकार काययोगादि ५५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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