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________________ नदीघोल-पाषाणन्यायसे याने यों ही सामान्य यत्नसे । इसीलिए वे यथाप्रवृत्तकरण कहे जाते हैं। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति में विघ्नभूत है अनन्तानुबन्धि नामक रागद्वेषकी परिणति । इसको ग्रन्थि कहते हैं। यह इतनी घनिष्ट होती है कि वांसकी गाँठके समान दुर्भेद्य होती है। यथाप्रवृत्तकरणसे उसका भेदन नहीं हो पाता है। अतः आत्माका यथाप्रवृत्तकरणसे बहुधा अशुभभावमें पुनरागमन होता है। क्वचित् किसी धन्य अवसरपर ग्रन्थि देशसे न गिरते हुए किसीको विशिष्ट आत्मवीर्य उल्लसित होता है, जो शुभभावकी प्रबलताके लिए अनुकूल है । संसारमें यह परिणाम पहला-पहला होनेके कारण उसे 'अपूर्वकरण' कहते हैं। इससे ग्रन्थि-भेद होते हुए पाँच अपूर्व वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। ५ अपूर्व वस्तु :प्र० - अपूर्व करणसे कौन कौन पांच अपूर्व वस्तुएँ होती हैं ? उ० - पापकर्मोके (१) विपाक कालका स्थितिघात एवम् (२) रसघात । (पूर्वोपार्जित पाप कर्मकी लम्बी कालस्थितिका घात करके अल्प स्थितिवाला बना देना, वह स्थितिघात है; और तीव्र रसको मंद बना देना, वह रसघात है।), (३) गुणश्रेणी अर्थात् उत्तरोत्तर असंख्यगुण वृद्धिके क्रमसे मिथ्यात्वादि कर्मोंके दलिकोंकी रचना करना जिससे उनका शीघ्रनाश हो । (४) गुणसंक्रम इसी वृद्धि के क्रमसे पूर्व-बद्ध अशुभकर्मोका शुभ कर्मोमें परिवर्तन होना, और (५) नए कर्मोका अपूर्व स्थितिबन्ध । इस प्रकार प्रथम अपूर्वकरणमें ग्रन्थि भेदरूप कार्य होता है और उसका कार्य है सम्यग्दर्शन। सम्यग्दर्शन :प्र०- सम्यग्दर्शन क्या है? सम्यग्दर्शन प्रशम आदि लक्षणोंसे विभूषित एक सुन्दर आत्मपरिणति है। वाचकवर्य श्री उमास्वाति महाराजसे विरचित तत्वार्थ भाष्यमें कहा गया है। सम्यग्दर्शन के प्रशम आदि ५ लक्षण : '१. प्रशम-२. संवेग-३. निर्वेद-४. अनुकम्पा-५. आस्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति' (अ० १ सू० २) अर्थात् प्रशमादि पांचो लक्षणों की अभिव्यक्ति से सम्यग्दर्शन यानी तत्त्वार्थ की श्रद्धा सुलक्षित होती है। यह सम्यग्दर्शन मूलभूत आत्मगुण है; इसके बाद ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्रगट होते हैं; इन तीनों को मोक्षमार्ग कहा गया है। पांचो में आत्मा की अवस्था देखिए। (१) प्रशम है कषायों का एसा उपशमभाव, कि जिससे, उदाहरणार्थ अपने शत्रु के प्रति भी प्रतिकूल चिंतन नहीं, अर्थात् उसके विनाश की भावना नहीं । वैसे अन्य कषायों का उपशम । (२) संवेगमें संसार के उत्कृष्ट सुखी देवताओं का सुख भी दुःख स्वरूप प्रतीत होता है, और मोक्ष के सुख की तीव्र कामना बनी रहती है। (३) निर्वेदमें धर्म को ही तारक समझता हुआ चतुर्गतिमय संसार को नर्क के कारागार की भांति मान कर ऐसे संसार के प्रति उद्वेग, अनास्था आदि रखता है। ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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