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________________ है, इससे क्रियाशुद्धि अखंडित रहती है। (३) सामर्थ्ययोगमें तो शास्त्रीय आदेशोंके पूर्ण पालन के अतिरिक्त आत्माकी अचिन्त्यसामर्थ्य - प्रबलता प्रगट होनेसे धर्मप्रवृत्ति अत्यधिक बलवती होती है। ये योग न्यायशास्त्रसे निर्दिष्ट हैं, आगममें सूत्ररूपसे कहीं भी सुननेमें आते नहीं है। फिर भी वे काल्पनिक नहीं किन्तु वास्तविक हैं, इनके बारेमें आगे 'आगमश्चोपपत्तिश्च....' इत्यादि श्लोकसे कहेंगे। इच्छायोग :प्र०- इच्छायोगका स्वरूप क्या है ? उ०- १ धर्मकरनेका इच्छुक, २ श्रुतार्थ, एवं ३ ज्ञानी ऐसे साधकके भी ४ प्रमादवश त्रुटित धर्मव्यापार याने धर्मप्रवृत्तिको इच्छायोग कहते हैं । इन विशेषणोंमें, (१) इच्छा धर्म करने की शुद्ध अभिलाषाको कहते हैं । शुद्ध होने के लिए वह कोई भी दुन्यवी आशंसा-अपेक्षा न होते हुए स्वतः प्रगट होनी चाहिए। यह सभी को नहीं किन्तु किसी-किसी को हो सकती है; जिसे इच्छा के बाधक कर्म-आवरणका क्षयोपशम हुआ है। इस निराशंस धर्मप्रवृत्तिकी शुद्ध इच्छाके प्रभावसे शुद्ध धर्मप्रवृत्ति, एवं विशिष्ट पापक्षय सहित नूतन पापका निवारण, ये दोनों सिद्ध होते हैं। और इससे संपन्न आत्मोन्नतिकारक शुद्ध धर्म और आगेके शास्त्रयोग एवं सामर्थ्ययोगकी भूमिका भी सिद्ध हो सकती है। ऐसी शुद्ध इच्छासे ही की गई धर्मप्रवृत्ति इच्छायोग बन सकती है, यह सूचित किया। (२) श्रुतार्थः - ऐसा धर्मेच्छु भी 'श्रुतार्थ' होना अर्थात् उस धर्मसे सम्बन्धित आगमका श्रवण किया हुआ होना चाहिए, क्योंकि बिना शास्त्रश्रवण धर्म प्रवृत्तिकी इच्छा भी वह किस विधिसे करना, उसे यह कैसे ज्ञात हो सकेगा? यह 'श्रुतार्थ' पदमें 'अर्थ' शब्द आगमके अर्थमें है, और ऐसा अर्थ भी हो सकता है; क्यों कि संस्कृत भाषामें 'ऋ' धातु (क्रियावाची शब्द) से 'अर्थ' शब्द बन सकता है, और 'ऋ' का अर्थ गमन, ज्ञान और प्राप्ति होता है। अतः जिससे तत्त्वकी प्राप्ति या ज्ञान हो वह 'अर्थ' है और आगमसे ही तत्त्वकी प्राप्ति या ज्ञान होता है; अतः आगम ही 'अर्थ' हुआ। (३) ज्ञानी: - ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम अनेकानेक प्रकारोंसे होता है, अतः संभव है किसी को आगमशास्त्र सुननेपर भी, अत्यन्त मन्द क्षयोपशम वश धर्मक्रियाकी विधि आदिका ज्ञान न हुआ होगा, तब वह धर्मेच्छु और श्रुतार्थ होनेपर भी धर्म-प्रवृत्ति कैसे करेगा? इसलिए करने योग्य धर्मप्रवृत्तिके स्वरूपका ठीक ज्ञान होना भी आवश्यक है। (४) प्रमादवश धर्म प्रवृत्तिकी शुद्ध इच्छा एवं उसका शास्त्रीय तत्त्वज्ञान होने पर भी विकथा-निद्रादि प्रमाद के कारण वह बिलकुल शुद्ध धर्म प्रवृत्ति कर पाता नहीं है; योग्य काल, आसन, मुद्रादिका सर्वांश पालन करता नहीं है। कहा है 'मज्जं विसयकसाया निद्दा विकहा य पञ्च पमाया'। प्रमाद पांच प्रकारका होता है :मदिरादि व्यसन, विषयासक्ति, क्रोधादि कषाय, निद्रा और विकथा । राजकथा, देशकथा-, भक्तकथा और स्त्रीकथाको विकथा कहा जाता है। प्रमादवश वह बूटित धर्मप्रवृत्ति करता है। ऐसी जो वन्दनादि सम्बन्धी धर्मप्रवृत्ति है, उसे इच्छायोग कहते है। इसमें योग्य कालादिका पालन नहीं करनेसे क्रियाका प्राधान्य नहीं रहता, किन्तु धर्मइच्छा की शुद्धता-प्रबलता के कारण इच्छाका प्राधान्य गिना जाता है, अतः वह इच्छायोग कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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