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________________ ( ल० ) शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिनः । श्राद्धस्य तीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तथा ॥ २ ॥ (पं०) - शास्त्रयोगस्वरूपाभिधित्सयाह 'शास्त्रयोगस्तु' इति । शास्त्रप्रधानो योग शास्त्रयोगः, प्रक्रमादेतद्विषयव्यापार एव, स ('तु') पुन:, 'इह' योगतन्त्रे ज्ञेयः । कस्य कीदृगित्याह 'यथाशक्ति' शक्त्यनुरूपम्, 'अप्रमादिनो' विकथादिप्रमादरहितस्य । अयमेव विशिष्यते 'श्राद्धस्य' तथाविधमोहापगमात् स्वसंप्रत्ययात्मिकादिश्रद्धावतः, 'तीव्रबोधेन' हेतुभूतेन, 'वचसा' आगमेन, 'अविकलः अखण्ड: ' तथा ' कालादिवैकल्याबाधया । न ह्यपटवोऽतिचारदोषज्ञा:, इति कालादिवैकल्येनाबाधायां तीव्रबोधो हेतुतयोपन्यस्तः ॥ २ ॥ ――― शास्त्रयोग :― योगशास्त्रमें वर्णित शास्त्रयोग वहीं है, जिसमें शास्त्रयोगी १ यथाशक्ति धर्मप्रवृत्ति कर रहा हो, २ अप्रमादी हो, ३ श्रद्धा सम्पन्न हो, ४ तीव्र बोधसे युक्त, एवम् ५ आगमानुसार कालादिके भंगसे खंडित न हो । यहाँ, (१) 'यथाशक्ति' का अर्थ है, शक्तिके अनुरूप; अर्थात् अपनी शक्ति यानी ताकतका उल्लंघन न करते हुए अपनी सर्वशक्तिका उपयोग करना । (२) अप्रमादी यानी विकथा-निद्राद्रि प्रमादोंसे बिलकुल रहित होना । (३) श्रद्धा संपन्न होना । इसमें विशिष्ट प्रकारका मोह नाश होकर स्वसंप्रत्यय होना चाहिए । स्वसंप्रत्ययका मतलब है कि ऐसी उच्च प्रकारकी श्रद्धा करनी चाहिए कि जिसमें हृदयमें अनुभवरूप बढिया प्रतीति और तीव्ररुचि हो; एवम् अधिकाधिक आत्मबल - स्थैर्य आदिकी जो प्रेरक हो । अनुभवस्वरूप प्रतीति का तात्पर्य यह है कि धर्मप्रवृत्तिका शास्त्रोक्त कठोर पालन सिर्फ शास्त्र के अनुरोधसे या पापभयसे होता है वैसा नहीं, किन्तु वह धर्मप्रवृत्ति अपने जीवन के स्वभाव-सी बन जाए ऐसा तत्त्वसंवेदन हो गया हो । (४) तीव्रबोध युक्त होना, इसमें धर्मप्रवृत्तिकी सूक्ष्मसे सूक्ष्म औत्सर्गिक विधि एवम् संभवित अतिचार अर्थात् दोष आदिका विस्तृत ज्ञान आवश्यक है । (५) आगमके अनुसार धर्मप्रवृत्ति अखंडित होना । इसमें काल- आसन - मुद्रादिकी लेशमात्र भी स्खलना न होनी चाहिए। तभी वह अखण्ड धर्मप्रवृत्ति कही जा सकती है। अनभिज्ञ लोग जब धर्मप्रवृत्तिमें लगते है तब महान या सूक्ष्म अतिचारकी समझ न पाने के कारण वे धर्मप्रवृत्तिको खण्डित बना देते हैं। अत: कालादिके भंग से बाधा न हो पावे, इसलिए तीव्र बोध को साधनरूपसे आवश्यक बताया । सामर्थ्य-योग: Jain Education International - सामर्थ्य योग शास्त्र-योगकी अपेक्षा अत्यधिक बलवान होता है। इसमें (१) उपाय यद्यपि शास्त्रद्वारा निर्दिष्ट होते हैं, किन्तु बिलकुल सामान्य रूपसे । (२) उन उपायों का विशिष्ट विस्तृतस्वरूप तो मात्र स्वानुभवगम्य होनेसे शब्दतः अवर्णनीय है; इसलिए शास्त्र जो सामान्यरूपसे फलपर्यन्त जाता है वह असमर्थ है । फलत: शास्त्रसे आगे बढ जानेवाला ही पुरुषार्थ सामर्थ्ययोगका विषय हो सकता है । (३) ऐसे सामर्थ्य योगमें आत्मसामर्थ्यकी प्रबलता हो उठती है। ऐसी विशिष्ट शक्तिसे सम्पन्न धर्मप्रवृत्ति, जो सामर्थ्ययोग कहलाती है, वह तीनों योगों में उत्तम योग है। उत्तम होनेका दूसरा यह भी कारण है कि उससे शीघ्र ही वीतराग सर्वज्ञता स्वरूप श्रेष्ठ फल उत्पन्न होता है 1 ४८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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