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पूना वाडिया कोलेज के प्रा. डॉ. पी. एल. वैद्य, एम. ए. डी. लिट् का उच्च अभिप्राय
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परिचय 卐
प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन आगम में रहे 'नमोत्थुणं अरहन्ताणं' इस वाक्य से आरम्भ होने वाले सुप्रसिद्ध चैत्यवन्दन सूत्र, उस पर सुविख्यात जैन आचार्य श्री हरिभद्रसूरि की 'ललितविस्तरा' नामक पांडित्य-प्रचुर व्याख्या एवं मुनिचन्द्रसूरि द्वारा उपर्युक्त व्याख्या पर लिखित 'पञ्जिका' नामक उपव्याख्या और इसी पञ्जिका व्याख्या के आधार पर पंन्यासजी श्री भानुविजयजी गणि का किया हुआ हिन्दी अनुवाद-इन सबका संग्रह है । मूल-चैत्यवन्दन स्तोत्र प्रत्येक जैन के नित्य पाठ में होता है । यह प्राय: प्राकृत किंवा अर्धमागधी भाषा में है। इसमें जिन-वर्णनात्मक ३२ या कुछ विद्वानों की मान्यतानुसार ३३ पद हैं। इनमें से प्रत्येक पद के अर्थ का सविस्तार विवेचन आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने अपनी 'ललित विस्तरा' नामक संस्कृत टीका में किया है । इस टीका में कई मूलभूत लेकिन गम्भीर विषयों की चर्चा . आई है । इस पर से आचार्य श्री हरिभद्रसूरि का जैन-धर्म सम्बन्धी ज्ञान कितना सूक्ष्म था - इसकी प्रतीति पाठक , वर्ग को हुए बिना रहेगी ही नहीं। इतना ही नहीं बल्की हिन्दू-धर्मान्तर्गत पूर्वमीमांसा, न्याय, सांख्य, योग वगैरह विविध शास्त्रों का अभ्यास भी आचार्य श्री का कितना गहरा था, इसका भी ख्याल पाठकों को निःसन्देह आएगा। आचार्य हरिभद्रसूरि केवल व्याख्याकार ही नहीं, अपितु जैन वाङ्मय में उनका एक स्वतन्त्र सा स्थान है । आपने विपुल प्रमाण में ग्रन्थरचना की है, उनकी भाषा प्रौढ एवं पांडित्य-प्रचुर होने के कारण सामान्य संस्कृतज्ञ लोगों के सहज रुप से (विवेचन की सहायता बिना) समझ में आने जैसी नहीं है ।
शायद उपरोक्त कारणो से आचार्य मुनिचन्द्रसूरि को मूलटीका 'ललित विस्तरा' पर उपटीका लिखने की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि विरचित टीका में जहां-जहां क्निष्टता प्रतीत हुई वहां श्री मुनिचन्द्रसूरि ने अत्यन्त सुगम भाषा में स्पष्टीकरण किए हैं, और वे भी उन्होंने जैन ग्रन्थ एवं हिन्दूग्रन्थों का यथायोग्य उपयोग करके किये हैं । इसके फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थत्रयी, अर्थात प्राकृत भाषा में मूल चैत्यवन्दन स्तोत्र, उस पर 'ललितविस्तरा', नामक संस्कृत टीका और उस टीका पर 'पञ्जिका, नामक उपटीका', इन तीनों ग्रन्थों को जनसाहित्य में असाधारण महत्व प्राप्त हुआ है।
मूल चैत्यवन्दन स्तोत्र समस्त आबालवृद्ध जैन श्रावकों के नित्यपाठ का विषय होने के कारण तथा उस पर की संस्कृत टीकाओं का श्रावक वर्ग में उतना उपयोग न हो सकने की वजह से पंन्यासजी श्री भानुविजयजी गणि ने उपरोक्त तीनों ग्रन्थों का सुलभ हिन्दी अनुवाद कर श्रावक वर्ग पर अत्यन्त उपकार किया है । जैन श्रावक-वर्ग तो इन चारों ही कृतिओं का अब आसानी से उपयोग करेगें ही, साथ ही साथ जैनेतर जनता को भी जैन-धर्म के शाश्वत मूल्यों का ज्ञान प्राप्त कर लेने में पंन्यासजी श्री भानुविजयजी के प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद का बहुत उपयोग होगा, ऐसा मेरा स्पष्ट मन्तव्य है।
- प. ल. वैद्य (परशुराम लक्ष्मण वैद्य
एम. ए. डी. लिट दि. १०-३-६३
प्रोफेसर वाडिया कोलेज)
पूना
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