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'श्री ललितविस्तरा' के सम्बन्ध में राजस्थान स्टेट के माननीय गवर्नर साहिब श्रीमान् संपूर्णानन्दजी महोदय क्या फरमाते हैं ?
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'ललितविस्तरा' के सम्बन्ध में दो शब्द लिखने का जो मुझ को अवसर मिला है उसके लिए में अपने को भाग्यशाली मानता हूँ । वस्तुतः प्रस्तुत संस्करण तीन पुस्तकों का समुच्चय हैं । पहिले तो आ. श्री हरिभद्रसूरिजी द्वारा विरचित ललितविस्तरा नाम की चैत्यवंन्दन सूत्र - विवेचना है जिसको भाष्य कहना चाहिए, फिर इस भाष्य पर आ. श्री मुनिचन्द्रसूरिजी द्वारा विरचित पंजिका व्याख्या नाम की वृत्ति है और भाष्य एवं वृत्ति पर प्रकाश नाम की हिन्दी टीका है । यद्यपि टीका के साथ संक्षिप्त विशेषण लगा है परन्तु वस्तुतः वह पर्याप्त मात्रा में विशद है। जो लोग संस्कृत से अनभिज्ञ है उनको इससे विषय को समझने में पूरी सहायता मिलेगी ।
ललित विस्तरा को जैन धर्म और दर्शन पर स्वतंत्र निबंध कहना अनुचित न होगा । उदाहरण के लिए पहले सूत्र को ही लीजिए, वह इस प्रकार है :नमोत्थुणं अरहंताण, भगवंताण, आइगराणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुंडरीयाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जो अगराणं, अभयदयाणं चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, वोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्भव रचाउरन्तचक्कवट्टीणं; अपडिहयवरनाणदंसणधराणं, वियट्ठछउमाणं, जिणाणं, जावयाणं, तिण्णाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, गुत्ताणं मोयगाणं, सव्वक्षूणं, सव्वदरिसीणं, सिव-मयल-मरुअ-मणंतमक्रत्रय-मव्वा बाह-मपुणयवित्ति सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमो जिणाणं जिअभयाणं ।
देखने पर तो यह मंगलाचरण जैसा लगता है, तीर्थंकरों की वन्दना है । परन्तु आ. श्री हरिभद्र सूरिने उसे एतावत् मात्र नहीं माना है । पहले तो इन प्राकृत शब्दो का नमोऽस्तु अर्हद्भ्यः इत्यादि संस्कृत रुप दिया गया है, और फिर एक एक शब्दों की इस प्रकार व्याख्या की गई है कि समूचा जैन दर्शन सामने आ जाता ! है । केवल स्वमत प्रतिपादन ही नहीं है, परन्तु भाष्यकारों की शैली के अनुसार प्रसंगवशात् अन्य मतों की ● 'आलोचना भी की गई है और जैन मत की विशेषताओं का सम्यक् रुप से निरुपण भी किया गया है । भारत में जिन दार्शनिक विचारधाराओं का समय समय पर उदय हुआ है। इसमें जैन मत भी अपना विशेष स्थान रखता है । वह अवैदिक है, अर्थात् वेद को प्रमाण नहीं मानता, परन्तु जैन दर्शन-जैन धर्मशास्त्र और जैन पुराणों में इस देश की बहुत सी प्राचीन परम्पराएं यथावत् सुरक्षित हैं । दर्शन के विद्यार्थी के लिए जैन दर्शन का अध्ययन करना नितान्त आवश्यक है । वह भले ही उस के तथ्यों से सहमत न हो फिर भी स्वमत पुष्टि के लिए भी जैन शास्त्रों का ज्ञान परमावश्यक है । आजकल हमारे यहां बहुधा एकदेशीय पठन-पाठन होता है । वेदान्त के विद्यार्थी शांकर भाष्य में जैन मत के खंडन को तो पढ़ लेते हैं, परन्तु जैन आचार्य स्वयं क्या कहते हैं उसको जानने का कष्ट नहीं करते । इसलिए उन का ज्ञान अधूरा और भ्रामक रह जाता है। ऐसे लोगों को ललितविस्तरा' जैसी पुस्तकों का निश्चय ही अध्ययन करना चाहिए। मेरी सम्मति में यह प्रकाशन सर्वथा उपादेय है ।
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राजभवन,
माउन्ट आबू दिनांक जून २५-१९६३ ई.
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संपूर्णानन्द
राज्यपाल,
राजस्थान
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