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प्रकाशकीय निवेदन
जैन शासन के महान् ज्योतिर्धर, स्व-पर दर्शनों के प्रकाण्ड विद्वान, सूक्ष्म तत्त्वसभर १४४४ शास्त्र प्रणेता पूज्यपाद आचार्य पुरन्दर श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज की - 'नमुत्थुणं' आदि सूत्रों पर की 'श्री ललितविस्तरा' नाम की विवेचना अलौकिक कोटि की है । जिस में तर्कपुरस्सर वर्णित श्री अरिहंत परमात्मा व जैन-दर्शन की विश्वश्रेष्ठ विशिष्टताएँ पढ़कर व्याख्यातृचूडामणि श्री सिद्धर्षिगणी महाराज की बौद्धदर्शन के अध्ययनवश हुई चलचित्तता जैनदर्शन की अतूट आस्था में परिवर्तित हो गई ! और वे गुरु के आगे अश्रूपूर्ण नयनों से क्षमा याचने लगे । (देखिए मुखपृष्ट चित्र) इस ललित । विस्तरा पर आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरिजी महाराज की रहस्यप्रकाशक पंजिका टीका है ।। उन दोनों पर बाल जीवों को गम्य ऐसी सरल व स्पष्ट हिन्दी विवेचना परम कृपालु गुरुदेव सिद्धान्तमहोदधि पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी म. की परम कृपा से उन के विद्धान तपस्वी शिष्यरत्न पू. पं. श्री भानुविजयजी गणि के द्वारा बहुत परिश्रम से लिखी गई है | आज हमें ललितविस्तरा, पंजिका, व हिन्दी विवेचना रुप यह तीनों ग्रन्थरत्न का प्रकाशन करते हुए अत्यधिक हर्ष होता है |
यह भी आनन्द की बात है कि हमारी विज्ञप्ति से इस ग्रन्थ पर राजस्थान स्टेट के माननीय राज्यपाल (गवर्नर) श्री सम्पूर्णानन्दजी महोदय ने 'भूमिका' लिख देने का एवं पूना वाडिया कोलेज के प्रोफेसर डॉ पी. एल. वैद्य (एम.ए.डी.लिट) महाशय ने 'परिचय' लिख देने का अनुग्रह किया है | पू. मुनिराज श्री राजेन्द्रविजयजी महाराज ने विस्तृत प्रस्तावना-आलेखन एवं पू. मुनिराज श्री पद्मसेनविजयजी महाराज आदि ने प्रूफ संशोधन व विषयसूचि-शुद्धिपत्रक निर्माण आदि में काफी सहकार देने की कृपा की है । इन सब के प्रति हम आभार प्रदर्शित करते हुए इस महाशास्त्र की प्रस्तावना से दिग्दर्शन एवं खुद ग्रन्थावलोकन से असाधारण तत्त्वबोध पाकर मूल्याङ्कन करें यही प्रार्थना करते हैं।
विशेष में केवल संस्कृत ललितविस्तरा और पंजिका टीका का अलग प्रकाशन भी किया गया है । जो कि केवल संस्कृतार्थी अभ्यासकों के लिए बहुत उपयोगी है।
अहमदाबाद
ता. २-७-६३
प्रकाशक
वीर संवत २४८५ आषाढष्ट्व शु. ११
चतुरदास चीमनलाल शाह
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