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________________ प्रस्तावना आंखों के इशारे मात्र से जगत में उलटपुलट करने में समर्थ चक्रवर्ती सम्राट भी जिस महाकाल के शिकार हैं, उस महाकाल का भी नियन्त्रण त्रिलोकनाथ के धर्मशासन द्वारा हो सकता है। यह नियन्त्रण अनंत कल्याण की सिद्धि के रूप में काल को अनुकूल कर देने से होता है । अनंत कल्याण का सृजन अनंतदर्शी के तत्त्व व मार्ग से ही हो सके यह युक्तियुक्त है । विक्रम की ग्यारहवी सदी का प्रसंग है । व्याख्यातृचूडामणि श्री सिद्धर्षि गणिवर्य पहले अपने गुरुजी के द्वारा सप्रमाण सत्तत्त्व की समझाइश कराने पर भी बौद्ध तत्त्वज्ञान से व्यामोहित हो चल-विचल होते रहते थे । अन्त में गुरुजी ने प्रौढ़ शास्त्रकार पूर्वाचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरविरचित श्री 'ललितविस्तरा' महाशास्त्र उन्हें पढ़ने को दिया । बस, पढ़ कर श्री सिद्धर्षि का मिथ्यात्व कहां ठहर सकता ? वह बिल्कुल पिघल गया। पहले बौद्ध युक्ति के प्रतिपक्षी जैन युक्ति से तो उन के मन का मात्र प्रासङ्गिक समाधान होता था, लेकिन फिर जैन तर्क के खण्डनकारी बौद्ध तर्क मिलने पर चित्त चलित हो जाता था। अब श्री ललितविस्तरा में अनन्तदर्शी के अनन्त कल्यांणसाधक तत्त्व-मार्ग की सर्वाङ्गीण सर्वश्रेष्ठ विशेषताओं व मार्मिक व्यापक तर्क समूह प्राप्त होने पर ऐसा दिव्यदर्शन उन्हें मिल गया कि इससे गुरुचरणों में झुक झुक कर अपनी पूर्व रखलना पर शर्मिन्दा हो तीव्र पश्चात्ताप से हृदयद्रावी रुदन करने लगे ! (देखिए मुखपृष्ठ - चित्र) बाद में तो उनके द्वारा श्री ललित विस्तरा शास्त्र में कथित अनन्तदर्शी के अनन्त-कल्याण साधक विविध असाधारण तत्त्व-मार्ग के आधार पर प्रकाशित व स्वच्छ की हुई अपनी बुद्धि से 'उपमितभवप्रपंच' कथा नामक संसार व मोक्ष के प्रतिस्पर्धी साधनों का विश्व में अनन्य उपमाशास्त्र निर्मित हुआ, एवं अन्य व्याख्या शास्त्र इत्यादि तत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक शास्त्रों की उन्होंने रचना की । इससे पता चलता है कि श्री ललितविस्तरा महाशास्त्र तत्त्वमार्ग का कितना अनुपम व गंभीर आध्यात्मिक साहित्य है । आज के युग विविध साहित्य प्रगट हो रहा है। लेकिन भौतिक एवं विलासी साहित्य की प्रचुरता ने जनता को इतना घेर लिया है कि लोगों के मस्तिष्क पर पवित्र आध्यात्मिक आर्य-संस्कार लुप्तसा हो भौतिक वासना का काफी असर पहुंच गया है। अफसोस कि ऐसे सत्त्वनाशक, निःसत्त्व साहित्य का करुण अंजाम क्या आयेगा, इसका ध्यान बहुत कम लोगों को आता है। गतानुगतिक प्रवाह में भोली जनता भौतिक वृत्ति प्रवृत्ति का दारुण दीर्घ भविष्य भूलकर उद्भट इन्द्रिय विषयों के पीछे दौड़ रही है। हमारा उन से साग्रह अनुरोध है कि जरा ठहरिए ! दो मिनट आंखें बंद कर विचार कीजिए कि ऐसे मात्र अर्थहीन ही नहीं वरन् अनर्थकारी विलासवाद, विलासीसाहित्य - इत्यादि से आप की पवित्र आर्य संस्कृति कितनी खतरे में आ गई है ? मानवता कितनी छिन्न-भिन्न हो रही है ? अनात्मवादी पाशवी वृत्ति कैसी दिन दोगुन रात चारगुन बढ़ रही है ? आस्तिकता, परमात्म-श्रद्धा, परोपकार, दया, नीति, सत्य, संतोष इत्यादि को कुचल कर नास्तिकता, भौतिक विज्ञान-श्रद्धा, स्वार्थान्धता, हिंसा, असत्य, अनीति तृष्णातिरेक इत्यादि दुर्गुण पिशाचों का विषमय साम्राज्य कितना व्यापक हो रहा है ? इन सब अनर्थों का एक प्रधान कारण भौतिक व विलासी साहित्य है। इसके जरिए प्रजा में प्रपंच, दम्भ, स्वेच्छाचार, तोड़ फोड़, यावत् मानव हत्या तक के महा अनिष्ट भी फैल रहे हैं। विद्यार्थी-विद्यार्थिनी गण में भी Jain Education International ७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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