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________________ (ल०) ३. तथा विधिपरता = मण्डलिनिषद्याऽक्षादौ प्रयत्नः, ज्येष्ठानुक्रमपालनम्, उचितासनक्रिया, सर्वथा विक्षेपसंत्यागः, उपयोगप्रधानतेति श्रवणविधिः । हेतुरयं कल्याणपरम्परायाः। अतो हि नियमतः सम्यग्ज्ञानम् । न ह्युपाय उपेयव्यभिचारी, तद्भावानुपपत्तेरिति । .(पं०) 'तद्भावानुपपत्तेरिति' = उपेयव्यभिचारिण (प्र०..... चारेण) उपायस्य उपायत्वं नोपपद्यते इति भावः । प्राप्त हो सकेगी। सम्यग् गुरु वही है जो १ गुरुका यथार्थ नाम धारण करता है, २ स्वपरशास्त्रोंके वेत्ता है, ३ परोपकारमें - परकल्याणमें रक्त है, और ४ पराशयको समझनेवाला है। गुरुकी ४ विशेषता : १. 'गुरु' शब्द का अर्थ है, जो शास्त्रके सत्योंकी और तत्त्वकी सम्यग् गिरा बोले। यदि शास्त्रके अर्थोका सच्चा कथन करनेवाला न हो तो उससे सम्यग् व्याख्या कैसे प्राप्त की जा सके? २. यथार्थ गुरु भी (१) स्वदर्शनके शास्त्रोंका ज्ञाता होना चाहिए; अन्यथा सूत्रकी व्याख्या करते समय सम्भव है इसमें प्रस्तुत कोई विषयका वर्णन अन्य शास्त्र में मिलता हो और वह शास्त्र ज्ञात न हो, तो यहाँ उस विषयकी व्याख्या गरबडी कर बैठेगा। (२) एवं परदर्शनके शास्त्रोंका भी ज्ञान होना चाहिए; यह न होने पर प्रस्तुत सूत्रकी व्याख्या पूर्वपक्षरूपसे आवश्यक परमतका व्याख्यान और उत्तरपक्षके रूपसे उसका ठीक खण्डन सम्यग् नहीं कर सकेगा। ३. गुरु परोपकाररक्त होना जरुरी है। तभी वह अपना स्वार्थ और कष्ट भूलकर शिष्यको अच्छा व्याख्याज्ञान कराने में उद्यत रहेगा। अन्यथा, शायद संकुचित व्याख्या करेगा, कहीं-कहीं यों ही मात्र शब्दार्थ कर चलेगा, शिष्य पर एकान्त हितबुद्धि न होनेके कारण शिष्यकी अल्पज्ञता पर क्रोधित हो उसे भग्नोत्साह कर देगा, या व्याख्या बन्द कर देगा। ४. गुरु पराशय अर्थात् शिष्यका अभिप्राय समझनेकी शक्तिवाला होना चाहिए । अन्यथा ऐसा होगा कि व्याख्यामें शिष्य शङ्का या जिज्ञासा कुछ करेगा, पूछनेका अभिप्राय कुछ रखेगा, और गुरु इसका अभिप्राय न समझता हुआ उत्तर कोई दूसरा ही देगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि गुरुमें ये चार गुण न होने पर ऐसे गुरुके द्वारा व्याख्या अगर की जाएगी तो भी जह यथार्थ व्याख्यान ही नहीं होगा; अव्याख्यान कहलायेगा। प्र०- व्याख्यान किया हुआ भी अव्याख्या न कैसे? उ०- अभक्ष्य-अस्पर्शनीय न्यायसे ऐसा है। यह न्याय यानी दृष्टान्त ऐसा है- गोमांस वगैरे भक्ष्य नहीं अर्थात खाया न जा सके ऐसा नहीं, किन्तु वह कुत्सित होनेसे अभक्ष्य कहलाता है । एवं चंडालका स्पर्श न किया जा सके ऐसा नहीं लेकिन किसीको गर्हणीर। लगनेसे ही वह अस्पृश्य कहा जाता है। इसी प्रकार गुणहीन गरुका व्याख्यान अनर्थकारी होनेसे अव्याख्यान माना जाता है। अतः गुणसंपन्न गुरुके साथ सम्यक् संबन्ध अर्थात् सुशिष्यभाव पूर्वक संबन्ध होना व्याख्या में आवश्यक है। ३. विधिपरता व्याख्या प्राप्त करनेके लिए विधि तत्परता बताना यह तीसरा आवश्यक अङ्ग है। विधि :- १ व्याख्या ३४ Jain adanom international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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