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(ल.) - तथा (२, गुरुयोगः) गुरुणा यथार्थाभिधानेन स्वपरतन्त्रविदा परहितनिरतेन पराशयवेदिना सम्यक्सम्बन्धः; एतद्विपर्ययाद्विपर्ययसिद्धेः, तद्व्याख्यानमपि अव्याख्यानमेव । अभक्ष्यास्पर्शनीयन्यायेनाऽनर्थफलमेतदितिपरिभावनीयमिति ।
(पं०) - ‘एतद्विपर्ययेत्यादि', ईदृशगुणविपरीताद् गुरोः 'विपर्ययसिद्धेः' = अव्याख्यानसिद्धेः, एतद्भावनार्थमाह 'तद्व्याख्यानम्'.... इत्यादि 'अभक्ष्यास्पर्शनीयन्यायेने ति = भक्ष्यमपि गोमांसादि कुत्सितत्वादभक्ष्यं, तथा स्पर्शनीयमपि चाण्डालादि कस्यचित् कुस्तित्वादस्पर्शनीयं, त एव 'न्यायो' = दृष्टान्तः, तेन।
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व्याख्या के ७ अङ्गोका स्वरूप
किसी भी सूत्रकी व्याख्या सिद्ध करने में जिज्ञासा आदि सात अङ्ग आवश्यक है; क्योंकि उनके बिना व्याख्याकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। और व्याख्याकी प्रवृत्तिमें भी पहले गुरुको वन्दन करना आवश्यक है। कारण यह है कि व्याख्या प्राप्त करना यह एक प्रकार का धर्म है और धर्मके प्रति मूलभूत वन्दना है। ('विणयमूलो धम्मो' इस शास्त्रउक्तिके अनुसार धर्मवृक्षका मूल है विनय; अतः वन्दनादि-विनय किये बिना कोई भी धर्म किस आधार पर अस्तित्व पा सके?)
व्याख्या के ७ अङ्ग
१. जिज्ञासा
व्याख्या प्राप्त करने के लिए प्रथम जिज्ञासा आवश्यक है। भला क्या अर्थ है इसका ?' यह जानने की इच्छा को जिज्ञासा कहते है। प्रस्तुतमें 'चैत्यवन्दन' सूत्रकी व्याख्याके लिए 'चैत्यवन्दन' सूत्रके ज्ञानकी इच्छा अर्थात् जिज्ञासा होनी चाहिए । जिज्ञासासे ज्ञान प्राप्त करना इसीलिए आवश्यक है कि सम्यग्ज्ञानके विना सम्यक्रिया नहीं हो सकती है, तब चैत्यवन्दनके ज्ञान न होने पर उसकी क्रिया कैसे की जा सके ? शास्त्रमें कहा गया है कि 'पढमं नाणं तओ दया' पहले जीवोंका ज्ञान हो तब उनकी दया हो सकेगी । अतः यहाँ ज्ञान होना प्रथमावश्यक है; और ज्ञान संपादन करनेकी स्वतः इच्छा ही न हो तो ज्ञानार्थ व्याख्या कौन सुनायेगा या सुनेगा? वास्ते, व्याख्या होनेमें जिज्ञासा आवश्यक मानी गई।
चैत्यवन्दनकी जिज्ञासा, बाधकभूत मिथ्यात्वमोहनीयादि कर्मोंके क्षयोपशमसे हो सकती है। इसी वजहसे वह सम्यग्दृष्टि जीवोंको ही हो सकेगी, औरोंको अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवोंको नहीं - ऐसा शास्त्रज्ञ पुरुष कहते हैं। कारण यह है कि चैत्यवन्दना श्री अर्हत् परमात्माके प्रति करनेकी है; तो चैत्यवन्दनकी सच्ची जिज्ञासा उन परमात्माके उपर अनन्य श्रद्धा-प्रीति धारण करनेवालोंको ही हो सकेगी, और ऐसी श्रद्धाप्रीति रखनेवाला ही सम्यग्दृष्टि कहा जाता है; एवं वह मिथ्यात्वादि कर्मोके नाश होनेपर होती है। इसीलिए कहा गया है कि इस कर्मनाशके बल पर सम्यग्दृष्टिको ही यह जिज्ञासा होती है। चैत्यवंदन क्रियाके लिए चैत्यवंदन का ज्ञान व्याख्या द्वारा अभिलषित है।
२. गुरुयोग व्याख्याका दूसरा अङ्ग है गुरुयोग । सम्यग् गुरुके साथ सम्यक् सम्बन्ध होवे तब उसके पाससे व्याख्या
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