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________________ ( ल . ) ४, तथा बोधपरिणतिः = सम्यग्ज्ञानस्थिरता, रहिता कुतर्क योगेन, संवृतरत्नाधारावाप्तिकल्पा, युक्ता मार्गानुसारितया, तन्त्रयुक्तिप्रधाना । स्तोकायामप्यस्यां न विपर्ययो भवति, अनाभोगमात्रं; साध्यव्याधिकल्पं तु तद्, वैद्यविशेषपरिज्ञानादिति । ―― (पं०-) ‘वैद्यविशेषपरिज्ञानादि' ति - वैद्यविशेष इव परिज्ञानं तस्मात् । अयमत्र भावो,- यथा वैद्यविशेषात् साध्यव्याधिर्निवर्तते, तथा परिज्ञानादनाभोगमात्रमिति । (प्रत्यन्तरे पाठ: - वैद्यविशेषस्य द्रव्यभावरूपस्य, परिज्ञानं सुनिश्चताप्ततयाऽवगमः तस्मात् । अयमत्र भावो, यथा द्रव्यवैद्यपरिज्ञानादवश्यं तदुक्तकरणेन साध्यव्याधिर्निवर्तते, तथा भाववैद्यपरिज्ञानादनाभोगमात्रमिति । ) प्राप्त करनेवालोंको मंडलिबद्ध बैठ जाना चाहिए । २ गुरुका आसन स्थापित करके ३ बीचमें स्थापनाचार्य रखने चाहिए । ४ गुरुके अनुकूल द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी सेवामें प्रयत्नपूर्वक चिंता करनी चाहिए । इत्यादि विधिमें खूब प्रयत्न करना आवश्यक है। इस प्रकार ५ बैठने में छोटे बडेके क्रमका भी पालना करना चाहिए। अर्थात् पहले बडा बैठे, बादमें छोटे क्रमशः बैठे । वाचना लेने योग्य मुद्रासे बैठना चाहिए । और यह भी आवश्यक है कि विक्षेपका सर्वथा त्याग किया जाय । अर्थात् व्याख्या श्रवणको छोडकर और कुछ भी मन, वचन और कायासे न किया जाये । फिर भी मूढ होकर बैठना नहीं चाहिए, व्याख्यान दत्तचित्त और बडी सावधानीसे लेना आवश्यक है। यही व्याख्याश्रवणकी यथार्थ विधि है। इससे गुरुशिष्य दोनों ही व्याख्याको देने-लेनेमें एकाग्रतासे रत रह सकते हैं। यह विधि एक दो कल्याण नहीं किन्तु कल्याणकी परम्पराका सर्जन करती है। क्यों कि इससे सूत्रार्थ के ज्ञानकी प्राप्ति तो होती ही है परंतु उसके अतिरिक्त गुरुविनय, ज्ञानविनय, ज्येष्ठके प्रति विनय, योग्य मुद्रास्वरूप संलीनतानामक तप, शुभचित्तकी एकाग्रता .... इत्यादिका भी लाभ उपलब्ध होता है; और इन सबके फलस्वरूप दृढ सुसंस्कार तथा बडा पाप कर्मोका क्षय होता है, एवं साथ ही पुण्यानुबन्धि पुण्यका लाभ भी संपन्न हो सकता है । ऐसी विधि अवश्य सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होती है। कारण यह है कि यह विधि उपाय है और ज्ञान उसका कार्य है। उपाय वह है जो कार्यका व्यभिचारी न हो; अर्थात् वह उपाय कार्य न भी करे ऐसा नहीं; क्योंकि कार्यको नियमसे नहीं करनेवाले उपायमें सचमुच उपायता ही नहीं बन सकती । उपाय वही है जो कार्यको नियमसे करे । ४. बोधपरिणति व्याख्याका चतुर्थ अङ्ग बोधपरिणति है । इसका अर्थ है सम्यग् ज्ञानकी स्थिरता और वह भी कुतर्क से रहित, रत्नोंके ढके हुए भाजनकी प्राप्तिसमान, एवं मार्गानुसारितासे समन्वित होनी चाहिए। इस बोधपरिणतिमें शास्त्रयुक्तिकी प्रधानता आवश्यक है। गुरुके पाससे सम्यग् ज्ञान प्राप्त होने पर भी अगर वह ज्ञान अस्थिर होगा, तो व्याख्या करनेका कोई अर्थ नहीं रहेगा। अतः वह स्थिर होना आवश्यक है। ज्ञान भी यदि शास्त्राधार एवं तर्कको प्रधानता देनेवाला न हो और कुतर्कसे समन्वित हो तो सम्भव है कि बादमें कोई विरोधी निरुपण सुनने पर अपने ज्ञानमें सन्देह या अनास्था उपस्थित होगी। अथवा अपना ही ज्ञान कुयुक्तियोंसे समर्थित होने पर उद्देश्यमें गडबडी की भी शक्यता है । अतः कुतर्करहित और शास्त्राधार एवं सद्युक्तिसे विभूषित होना आवश्यक है। ऐसी ज्ञानकी स्थिरता रत्नों के एक ढके हुए भाजन के समान होगी; और कहीं भी वे ज्ञान-रत्न उछल नहीं पडेंगे, बल्कि सुरक्षित रहेंगे । इसीलिए रत्न- पात्रकी उपमासे इसके प्रति अपना अत्यन्त आदर एवं मूल्यांकन रहेगा । साथमें बोध, मार्गानुसारितासे युक्त होने पर ठीक रूपसे परिणत हो सकता है, अर्थात् इसका असरकारक भाव हृदयमें जम जाता है। जीवनमें ज्ञान कितना ही प्राप्त किया जाए किन्तु आदि प्राथमिक मार्गानुसारि गुणोंके अनुसार आचार ३५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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