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(ल०-) इयं च चित्रा सम्पदनन्तधर्मात्मके वस्तुनि मुख्ये मुख्यवृत्त्या । स्तवप्रवृत्तिश्चैवं प्रेक्षापूर्वकारिणामितिसंदर्शनार्थमेवमुपन्यासोऽस्य सूत्रस्य, स्तोतव्यनिमित्तोपलब्धौ तन्निमित्ताद्यन्वेषणयोगात् । इति प्रस्तावना ।
(पं०-) ननु चैकस्वभावाधीनत्वाद् वस्तुनः कथमनेकस्वभावाक्षेपिका स्तोतव्यसम्पदादिका चित्रा सम्पदेकत्र ? यदि परमुपचारवृत्त्या स्यादित्याशङ्क्याह 'इयं च चित्रा' इत्यादि । 'स्तोतव्यनिमित्तोपलब्धौ' इति, 'स्तोतव्याः' = स्तवार्हाः अर्हन्तः, ते एव निमित्तं = कर्मकारकत्वात् स्तवक्रियायाः, तस्य उपलब्धौ = ज्ञाने । 'तनिमित्ताद्यन्वेषणयोगाद्' इति, तस्य = स्तोतव्यरूपस्य, निमित्तस्य = अहल्लक्षणस्य निमित्तं आदिकरत्वादि आदिशब्दादुपयोगादिसंग्रहः तस्य, अन्वेषणघटनादिति ।
(८) इसके पीछे 'जिणाणं-जावयाणं.....' इत्यादि चार पदोंसे आत्मतुल्यपरफलकर्तृत्व अर्थात् स्वयंप्राप्त फलके समान फल दूसरोंको भी कराते हैं यह सूचित करनेवाली संपदा कही गई है, क्यों कि जिन-जापकादि चार इस प्रकारके गुण हैं।
(९) आगे के 'सव्वन्नूणं....' इत्यादि तीन पदोंसे प्रधानगुणाऽपरिक्षय-प्रधानफलप्राप्ति - अभय संपदा कही गई, क्यों कि सर्वज्ञता - सर्वदर्शिता स्वरूप दो प्रधान गुण अब कभी नाश नहीं होते हैं। इसके फल-स्वरूप निरुपद्रव एवं अचल आदि गुणसंपन्न स्थान प्रधान फल रूपमें प्राप्त होता है। इससे जितभय स्वरूप संपदा होती है।
यहां प्रश्न होता है कि (संपदाओं में अनेकान्तवादः -)
प्र०- आपने विविध सम्पदाएँ बतलाई यह तो ठीक, लेकिन जब वस्तु एक ही स्वभावके अधीन है, तब स्तोतव्यसम्पदादि विविध सम्पदाएँ क्यों कही गई ? इनसे तो एक वस्तुमें अनेक स्वभावों का ही अनुमान होता है ? अथवा क्या यह मुख्यवृत्तिसे नहीं, किन्तु उपचारवृत्तिसे कहा गया है ?
उ०- नहीं, मुख्यवृत्तिसे ही विविध सम्पदाओंका प्रतिपादन किया गया है, क्यों कि एक ही वस्तुमें अनेक स्वभाव मुख्य वृत्तिसे ही समाविष्ट होते हैं। सर्वज्ञ वचन है कि जगतमें वस्तुमात्र अनन्तधर्मात्मक होती है। एक ही समयमें द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादि रूपसे वस्तुमें एक साथ ही अनन्त स्वपर्याय-पर पर्यायके अस्तित्वके कारण अनन्तधर्मात्मकता वस्तुरूपसे सिद्ध है, औपचारिक रूपसे नहीं। हम देखते हैं कि जिस समय घडा मिट्टीका बना हुआ है, उसी समय वह अमुक स्थानमें स्थित भी है, और अमुक कालसे संबद्ध भी है; इसी प्रकार उसी समयमें वह श्याम, मोटा, सुन्दर, जलपूर्ण इत्यादि धर्मोंसे युक्त भी है। ठीक इसी प्रकार स्तुतिपात्र अर्हत् परमात्मामें भी अनेक विविध सम्पदा रूप धर्म अबाधित है। इसी तरह, तत्त्वदर्शी विचारक पुरुषोंकी अर्हत्-स्तवनमें प्रवृत्ति होती है - यह दिखलानेके लिए ही इसी सूत्रका ऐसा उपन्यास किया गया है।
प्र०- इस प्रकारसे ही अर्हत्-स्तवन करनेका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - तात्पर्य यह है कि इस 'नमोऽत्थुणं' इत्यादि प्रणिपातदंडक-सूत्रमें प्रभुके हेतु-उपयोगादि जिन विशिष्ट धर्मोका कथन किया है वे संकलनाबद्ध है; और प्रेक्षावान पुरुष ऐसी संकलनाके ढंगसे ही स्तुति करते हैं। इसका कारण यह है कि श्री अर्हत् परमात्मा स्तोतव्य हैं अर्थात् स्तुतिरूप क्रियाके विषय हैं। व्याकरणशास्त्र जिसको कर्ता-कर्म-करण इत्यादि कारकोंमें से कर्मकारक (इप्सिततम) कहता है, ऐसे स्तुतिक्रियाके कर्म कारक हैं अर्हत्प्रभु,' - इस प्रकार ज्ञात होने पर अर्हत्परमात्मामें आदिकरत्व आदि जिन जिन गुणोंका उल्लेख किया है, 'उनका क्या कारण है? उनका क्या क्या उपयोग है ?.....' इत्यादि सबका अन्वेषण करना उचित एवं युक्तियुक्त है। ऐसा अन्वेषण करनेपर प्रणिपातसूत्रोक्त संपदाओंकी यही संकलना स्तुति उपयोगी है - ऐसा ज्ञात होगा ! ---- यह हुई प्रस्तावना
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