SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्या - ६ लक्षण - ७ अङ्ग (ल.) अथास्य व्याख्या । तल्लक्षणं च संहितादि, यथोक्तम् - १ संहिता च २ पदं चैव ३ पदार्थः ४ पदविग्रहः । ५ चालना ६ प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा ॥ इति ॥ एतदङ्गानि तु जिज्ञासा, गुरुयोगो, विधि इत्यादीनि । अत्राप्युक्तम् - १ जिज्ञासा २ गुरुयोगो, ३ विधिपरता ४ बोधपरिणातिः ५ स्थैर्यम् । ६. उक्त क्रिया ७ ऽल्पभवता, व्याख्याङ्गानीति समयविदः ॥ (१) तत्र 'नमोऽस्त्वर्हद्भ्य' इति संहिता । (२) पदानि तु 'नमः' 'अस्तु', 'अर्हद्भ्यः । (३) पदार्थस्तु'नमः' इति पूजार्थं, पूजा च द्रव्यभावसङ्कोचः । तत्र करशिरःपादादिसंन्यासो द्रव्यसङ् कोचः, भावसङ्कोचस्तु विशुद्धस्य मनसो नियोग इति । अस्तु' इति भवतु; प्रार्थनार्थोऽस्येति । 'णं' इति वाक्यालङ्कारे; प्राकृतशैल्या इति चेहोपन्यस्तः । अर्हद्भ्यः' इति देवादिभ्योऽतिशयपूजामर्हन्तीति अर्हन्तस्तेभ्योः नमःशब्दयोगाच्चतुर्थी । (४) पदविग्रहस्तु यानि समाजभाञ्जि पदानि तेषामेव भवतीति नेहोच्यते। (पं०) - प्राकृतशैल्येति चेहोपन्यस्तः = प्राकृतग्रन्थस्वाभाव्येन, इति = एवं वाक्यालङ्कारतया, 'चः' पुनरर्थो (\), इह = सूत्रे, उपन्यस्तः, संस्कृते वाक्यालङ्कारतयाऽस्य प्रयोगादर्शनात् । प्राकृतशैल्येहोपन्यस्त इति पाठान्तरं, व्यक्तं च। व्याख्याके ६ लक्षण अब सूत्रकी व्याख्या की जाती है। व्याख्या के 'संहिता' आदि छ: लक्षण होते हैं। कहा है कि, १ संहिता, २ पंद, ३ पदार्थ, ४ पदविग्रह, ५ चालना, ६ प्रत्यवस्थान, क्रमशः इन छ: प्रकारोंसे शास्त्रकी व्याख्या होती है। - व्याख्याके अंग सात है : - १ जिज्ञासा, २ गुरुयोग, ३ विधितत्परता, ४ बोधपरिणति, ५ स्थैर्य, ६ उक्तक्रिया, ७ अल्पभवता; ऐसे शास्त्रज्ञ लोग कहते हैं । अर्थात सूत्र की व्याख्या करनी हो तो, (१) पहले संहिता करने चाहिए । सूत्रके शुद्ध स्पष्ट उच्चारणको संहिता कहते है । जैसे कि 'नमोऽस्त्वर्हद्भ्यः ' (नमोत्थु णं अरहंताणं)। (२) बादमें इसके अलग अलग पद दिखलाना आवश्यक है; जैसे कि 'नमः, अस्तु, अर्हद्भ्यः '। पूजा क्या है ? (३) तदनन्तर पदोंके अर्थ कहने चाहिए। दृष्टान्तके लिए 'नमः' यह पद पूजा के अर्थमें है। पूजा क्या है ? द्रव्यभावसङ्कोच यह पूजा है। हाथ-सिर-पैर-दृष्टि-वाणी इत्यादिके सम्यक् नियमनको द्रव्य संकोच कहते हैं। (अर्थात् नमस्कार करते समय अपने हाथोंको अंजलिबद्ध करना, अंजलिसहित सिरको कुछ नमाना, पैरोंके वामजानू भूमिसे कुछ उंचा रखना और दाहिना जानू भूमिपर स्थापित करना, दृष्टि जिन बिंबपर स्थिर रखना; वाणीको सूत्रोच्चारणमें ठीक शुद्धिसे योजित करना; इत्यादि सब द्रव्य संकोच है।) ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy