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प्रणिपातदण्डक सूत्र नमस्कार हो अरहंत भगवंतको, जो आदिकर हैं, तिर्थंकर हैं, एवं स्वयं संबुद्ध है; जो पुरुषोत्तम हैं, पुरुषसिंह हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक हैं और पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ति हैं, जो लोकोत्तम हैं, लोकनाथ हैं, लोगोंके लिये कल्याणस्वरूप हैं, लोकप्रदीप हैं और लोगोंके प्रद्योतकारी हैं; जो अभयदाता हैं, चक्षुदाता हैं, मार्गदाता हैं, शरणदाता हैं, बोधिदाता हैं; जो धर्मदाता हैं, धर्मोपदेशक हैं, धर्मनायक हैं, धर्मसारथि हैं, एवं धर्म के चातुरन्त चक्रवर्ती हैं; जो अप्रतिहत ज्ञान और दर्शनके धारक हैं, छद्मस्थभाव (आवरण) से मुक्त हैं; जो स्वयं जिन (रागद्वेषादिके) विजेता हैं, दूसरोंको जिन बनानेवाले हैं; जो अज्ञानसे तर गये हैं, और अन्योंके तारक हैं ; जो बुद्ध हुए हैं, और दूसरोंके बोधक हैं; जो कर्मबन्धनसे मुक्त हैं और दूसरोंको मुक्त करानेवाले हैं; जो सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी है तथा जो निरुपद्रव-अचल-निरोग-अनंत-अक्षय-व्याबाधारहित-अपुनरावृत्ति ऐसी सिद्धिगति नामके स्थानको प्राप्त हैं, जो भयके विजेता है-ऐसे जिनेन्द्रदेवको मैं नमस्कार करता हूं। यहाँ ३२ आलापक (पद)) हैं, कोई कहते है कि 'वियट्टछउमाणं' पदके साथ ३३ आलापक हैं। इनमें नव संपदा यानी मुख्य बातें कही गई हैं।
नौ सम्पदाएँ (१) अरिहंताणं, भगवंताणं - इन आद्य दो पदोसे स्तोतव्य संपदा कही गई; क्यों कि स्तोतव्य अर्थात् स्तुतिपात्र होनेसें समग्र निमित्त अर्हत् भगवंत ही हैं।
(२) आइगराणं..... इत्यादि तीन पदोंसे स्तोतव्य संपदा की ही प्रधान रूपसे साधारण-असाधारण हेतु संपदा कही गई। कारण यह है कि अन्य जीवों से समान ऐसी जन्मकरणशीलतासे संपन्न होकर असाधारण ऐसी तीर्थकरता एवं स्वयं संबोधरूप हेतुसम्पदासे युक्त होने से ही भगवान ऐसे स्तोतव्य होते हैं।
(३) बादमें, पुरिसुत्तमाणं..... इत्यादि अन्य चार पदोंसे स्तोतव्य संपदा की ही असाधारण स्वरूपवाली हेतुसंपदा कही है। चूं कि जो पुरुषोत्तम है उसीमें सिंह-पुण्डरीक-गन्धहस्तीके धर्म घट सकते हैं, और इसी वजहसे स्तोतव्य संपदा याने अर्हत-परमात्मभाव हो सकता है।
(४) इसके पीछे, 'लोगुत्तमाणं'.....इत्यादि पांच पदोंसे स्तोतव्य संपदाके ही क्या क्या सामान्य उपयोग है इनकी संपदा कही गई। इसका कारण यह है कि अर्हद् भगवंतमें जो लोकोत्तमता - लोकनाथता -लोकहितकारितालोकदीपकता-एवं लोकप्रद्योतकता हैं वे दूसरों के हितार्थ हैं ; अर्थात् ये अर्हत् प्रभु के सामान्य उपयोग हैं।
(५) अभयदयाणं..... इत्यादि पांच पदोंसे इसी उपयोग संपदाकी कारण-सम्पदा कही गई, क्यों कि अभयदान - चक्षुदान - मार्गदान-शरणदान - बोधिदान से ही परोपकार अर्थात् उपयोग सिद्ध होता है।
(६) बादमें 'धम्मदयाणं'.... इत्यादि पांच पदोंसे स्तोतव्य संपदाकी ही विशेषोपयोग संपदा कही गई, क्यों कि धर्मदातृत्व, धर्मदेशकता, धर्मनायकता, धर्मसारथिपन एवं धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तित्व द्वारा स्तोतव्य श्री अर्हन् प्रभुका विशेष उपयोग सूचित किया है।
(७) इनके पश्चात् 'अप्पडिहयवरनाण.....' इत्यादि पदोंसे मूल निमित्तभूत स्तोतव्य संपदामें से फलित होनेवाली स्वरूप संपदा कही गई, क्यों कि श्री अर्हत् परमात्मा अप्रतिहत ऐसे श्रेष्ठ ज्ञान एवं दर्शनके धारक होते हैं, तथा छद्मसे मुक्त होते हैं।
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