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(पं०) अस्तु नामायं प्रवचनगाम्भीर्यनिरुपणादिरुत्सर्गापवादस्वरूपपरिज्ञानहेतुः श्रेयोमार्गः, परं ज्वरहरतक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशवदशक्यानुष्ठानो भविष्यतीत्याशङ्क्याह 'व्यवस्थितश्च' इत्यादि । 'व्यवस्थितश्च = प्रतिष्ठितश्च, स्वयमेव महापुरुषैरपुनर्बन्धकादिभिरनुष्ठितत्वात् । 'ध्रुवे' त्यादि-ध्रुवो =निश्चितः,
तावत्' शब्दो वक्ष्यमाणानर्थक्रमार्थः, 'अतः' = शुद्धदेशनायाः, 'बुद्धिभेदो' = यथाकथञ्चित् क्रियमाणायामधिकृतक्रियायामनास्थया क्षुद्रसत्त्वतया च शुद्धकरणासामर्थ्यात् करणपरिणामविघटनम् । 'तदनु' = ततो, बुद्धिभेदात् क्रमेण, 'सत्त्वलेशचलनं' = सुकृतोत्साहलवभ्रंशः, 'कल्पितफलाभावापत्त्या' = स्वबुद्धिसम्भावितस्य फलस्य 'अयथास्थितकरणेऽपि न किञ्चिदि'ति देशनाकर्तुर्वचनाद् असत्त्वसम्भावनया, 'दीनता' = मूलत एव सुकृतकरणशक्तिक्षयः । 'स्वभ्यस्तमहामोहवृद्धिः', 'महामोहो = मिथ्यात्वमोहस्ततः, 'स्वभ्यस्तस्य' = प्रतिभवाभ्यासान्महामोहस्य, 'वृद्धिः' उपचय इति ।
किन्तु यह सर्वदा ध्यानमें रखना चाहिए कि कल्याणमार्ग जितना सरल है उतना ही तलवार की धारके जैसा पैना भी है। इस मार्गपर चलनेका अधिकार अपुनर्बन्धक और उससे उन्नत श्रेणीके पुरुषोंके अतिरिक्त दूसरोंको नहीं है। यह तो क्या, किन्तु वैसे अनधिकारी पुरुष तो शुद्ध उपदेशके श्रवणके भी अधिकारी नहीं हैं। 'चैत्यवन्दन अधिकारीको ही देना' - यह शुद्ध उपदेश है। ऐसा शुद्ध उपदेश सुननेकी योग्यता आती है कर्ममलके क्षय, शुद्ध आशयसंपन्नता तथा संसार परकी अनास्थासे ही । ऐसी योग्यता आनेके पश्चात् तो जिन प्रवचनकी गहराईका अन्वेषण एवं मूल्यांकन करना इत्यादि सुसाध्य हो जाते हैं। बाकी, कर्ममलका क्षय न होनेपर जब उपदेशश्रवणकी योग्यता ही न हो, तब वह जैन प्रवचनकी गम्भीरता के अन्वेषण एवं मूल्यांकन आदिका अधिकारी ही कैसे हो सकता है ?
सिंहनाद-सी शुद्ध देशना : क्षुद्रोको बुद्धिभेदादि : -
प्रश्न - शुद्ध उपदेशश्रवण का इतना बड़ा तो क्या माहात्म्य है कि जिनका कर्मक्षय आदि नहीं हुआ है वे इसके अधिकारी तक नहीं माने जाते?
उत्तर - वस्तुतः शुद्ध उपदेश तो सिंहनाद जैसा है। इसे सुनकर क्षुद्र प्रकृतिवाले जीवरूपी मृगोंके समूहमें एक तहलका-सा मच जाता है। बात यह है कि ऐसे क्षुद्र जीव अनेक जन्मोंमें अभ्यस्त क्षुद्रतावश अपनी पौद्गलिक सुखरूप संसारमें तथा मद-मत्सर-अहंकार आदि दुर्वृत्तियोंमें सविशेष आसक्त रहते हैं। उनकी प्रकृति भी अशुद्ध आशयवाली होती है। अतः यदि वे धर्मानुष्ठान करते भी हैं तो उसके पीछे उनका उद्देश मलिन रहता है। अतएव जब वे सुनते हैं कि 'शुद्ध उपदेशमें तो अर्थित्व, सामर्थ्य, शास्त्राविरोध; तथा बहुमान, विधिपरता एवं उचितवृत्ति आदि मौलिक व योग्यतासूचक गुणोंकी आवश्यकता होती है; और इनके होनेपर ही धर्मानुष्ठानकी सफलता, अन्यथा उलटी विफलता और हानि होती है' - तब उन क्षुद्र जीवों में घबराहट एवं अस्वस्थता क्यों न हो? वस्तुतः इनमें सिर्फ घबराहट ही नहीं होती, अपितु (१) बुद्धिभेद, (२) सत्त्वनाश, (३) दीनता, (४) महामोहकी वृद्धि, और (५) क्रियात्याग जैसे अनर्थोकी परम्पराकी सृष्टि होती है। इन अनर्थोको हम बराबर समझ लें।
बुद्धिभेद-सत्त्वनाश आदिका स्वरूप
(१) बुद्धिभेद : -- ज्यों-त्यों की जानेवाली क्रियाकी निष्फलता आदिका वर्णन सुनकर एक ओर तो ऐसी क्रियामें अविश्वास पैदा होता है, और दूसरी ओर क्षुद्रतावश अपनेमें शुद्ध क्रिया करनेकी सामर्थ्य भी नहीं होती। फलतः धर्मक्रिया करनेकी बुद्धिका भंग हो जाता है - वैसी क्रिया करने की मनोभावना ही नष्ट हो जाती है। यह हुआ बुद्धिभेद ।
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