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(ल०) व्यवस्थितश्चायं महापुरुषाणां क्षीणप्रायकर्मणां विशुद्धाशयानां भवाबहुमानिनामपुनर्बन्धकादीनामिति । अन्येषां पुनरिहानधिकार एव, शुद्धदेशनानहत्वात् । शुद्धदेशना हि क्षुद्रसत्त्वमृगयूथसंत्रासनसिंहनादः । धुवस्तावदतो बुद्धिभेदः, तदनु सत्त्वलेशचलनं, कल्पितफलाभावापत्त्या दीनता, स्वभ्यस्तमहामोहवृद्धिः, ततोऽधिकृतक्रियात्यागकारी संत्रासः । भवाभिनन्दिनां स्वानुभवसिद्धमप्यसिद्धमेतद्, अचिन्त्यमोहसामर्थ्यादिति । न खल्वेतानधिकृत्य विदुषा शास्त्रसद्भावः प्रतिपादनीयो दोषभावादिति । उक्तं च-अप्रशान्तमतौ शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोदीर्णे, शमनीयमिव ज्वरे ॥ इति कृतं विस्तरेण । अधिकारिण एवाधिकृत्य पुरोदितान्, अपक्षपातत एव निरस्येतरान् प्रस्तुतमभिधीयत इति ।
उ०- इतर दर्शन एकान्त-धर्मोंको मान्य करते हैं, जिसके कारण वे दोषग्रस्त होते हैं। जैनदर्शन इनसे विलक्षण अनेकान्तधर्मवादी है; और इसीलिए वह, निर्दोष एवं केवल गुणसम्पन्न है। अतः इसका तनिक भी समावेश उन दर्शनोंमें कैसे हो सकता है ? उनका जैनदर्शनमें समावेश इस कारण होता है कि उनके मान्य धर्मों का अंश जैन दर्शनमें मान्य हो जाता है। इससे हम सहज ही समझ सकते हैं कि जैन दर्शन कितना व्यापक, गम्भीर
और परीक्षाशुद्ध है, ऐसा जैनदर्शन जब योग्य जीवों को सूत्रप्रदान करनेकी गम्भीर आज्ञा देता हो तब वह आज्ञा कितनी अनुसरणीय है, यह सहज ही ख्यालमें आ सकता है । ऐसी आज्ञाके पथ पर ही प्रवृत्ति करनेवाले महापुरुषोंके उत्तम दृष्टान्तोको आदर्श बनाकर ही इस आज्ञाको अपने भी जीवनमें मान कर, उन्नत एवं कल्याणावह प्रवृत्ति रखनी चाहिए। जीवन को उन्नतिशील एवं कल्याणवाही बनानेका क्षेमंकर एवं सरल राजमार्ग और क्या हो सकता है?
यहाँ पर कोई ऐसा प्रश्न उठा सकता है :शक्य प्रवृत्ति : व अपुनर्बन्धक जीव
प्रश्न :- यह सही है कि उत्सर्ग एवं अपवाद मार्गके योग्य स्वरूपमें समझनेके लिये तथा कल्याणमार्गकी जिज्ञासाके तृप्तिहेतु आर्हत् प्रवचनकी गम्भीरताका अन्वेषण एवं मूल्यांकन करना चाहिए। किन्तु बुखार उतारने के लिये कोई नागके मस्तकमें रही हुई मणिका अलंकार धारण करनेको कहे, तो वह जैसे अशक्यानुष्ठान है अर्थात् उसका अमल करना अशक्त है, वैसे ही आर्हत् प्रवचनको गम्भीरताका अन्वेषण आदि भी अगर अशक्यानुष्ठान रूप हो तो फिर उत्सर्ग अपवाद का ज्ञान एवं आत्माका कल्याण कैसे शक्य है?
उत्तर - इस शंका का निराकरण यह है कि यह कल्याणमार्ग प्रयोगसिद्ध है और इसीलिये वह अशक्यानुष्ठान नहीं है। 'तीव्र भावसे पाप न करना, घोर संसार पर आस्था न रखना, सर्व उचितका आदर करना' इत्यादि सुलक्षणों से सम्पन्न, तथा कर्मबन्धनोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अब पुनः उपार्जन नहीं करनेवाले, ऐसे अपुनर्बन्धकादि महापुरुषोंके द्वारा यह कल्याणमार्ग आचरित है, अतः इसे अशक्य नहीं कह सकते । ऐसे महापुरुषोंके जीवनसे ज्ञात होता है कि (१) उन्होंका कर्ममल बहुत क्षीण हो गया है, (२) कर्ममलकी क्षीणताके कारण वे पवित्र आशयवाले बने हैं, और (३) वे हृदयसे संसारकी आस्था अथवा बहुमान करनेवाले नहीं हैं, अर्थात् संसार परसे उनकी आस्था उठ गई है। किसी भी व्यक्तिमें ऐसी पूर्वभूमिका यदि तैयार हो तो उसके लिये आर्हत् प्रवचनमें उल्लिखित कल्याणमार्ग पर चलना अशक्य नहीं है।
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