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जैनदर्शनकी विशेषताएँ
१. गाम्भीर्य आर्हत् प्रवचन कितना गम्भीर है इसकी सब तरहसे गवेषणा करना आवश्यक है। चैतन्यवन्दनकी आराधनाके अभिलाषीको भी उसकी अनधिकारिताके कारण मना करनेमें जैन प्रवचन का कितना गहरा रहस्य होगा, आत्मकल्याणकारिणी आराधना क्यों समग्ररूपसे आवश्यक एवं अनिवार्य भूमिका के साथ करनी चाहिए, ऐसी आराधना उत्तरोत्तर विकासशील एवं गुणानुबन्ध तथा हितानुबन्धसे सम्पन्न क्यों होनी चाहिए, और किस प्रकार ऐसा हो सकता है, - इन और ऐसे दूसरे विषयोंमें जैन प्रवचनका गम्भीर मन्तव्य विचारणीय एवं आदरणीय है। साथ ही, दूसरे दर्शनोंकी परिस्थिति भी, उनके समग्र बाध्याबाध्य अंशके साथ, देखनी चाहिए, जिससे उनकी गहराई या छिछरापन, उनके तात्त्विक चिन्तनकी समग्रता या अल्पता और विचारणाकी विश्वतोमुखिता या क्षुद्रता ख्याल आ सके ।
२ त्रिविध परीक्षामें उत्तीर्णता - शास्त्र परीक्षामें जैनप्रवचनकी उत्तीर्णता भी देखने योग्य है । जिस प्रकार सुवर्णकी परीक्षा पहले कसौटीपर कसकर की जाती है कि वह सच्चा सुवर्ण है या नहीं, फिर भीतर चाँदी है या सोना या और कुछ यह देखने के लिये उसका छेद करते हैं - उसे काटते हैं। बादमें उसकी सर्वांशमें सच्चाई जाँचने के लिये उसे अग्निमें तपाते हैं, और इन तीनों परीक्षाओंमेंसे गुजरनेके बाद ही सुवर्णकी सुवर्णता प्रमाणित होती है, तथा वह मान्य भी होता है। उसी प्रकार शास्त्रोंकी शुद्ध तत्त्व व्यवस्था याने तात्त्विक शुद्धता भी इन तीन प्रकारकी परीक्षाओंसे प्रमाणित होती है । प्रस्तुत जैन प्रवचन भी कष, छेद और ताप इन त्रिविध परीक्षाओंमेंसे उत्तीर्ण जीव-अजीव आदि सात तत्त्वोंका प्रतिपादन करता है । इसीलिये इतर दर्शनोंकी अपेक्षा इसका अपना एक तरहका सौन्दर्य, यथार्थता गौरव और वैशिष्ट्य है । (१) 'आत्मदर्शन करो,' 'हिंसा मत करो' इत्यादि सम्यग् विधि-निषेध जिसमें हैं वह 'कष' परीक्षामें उत्तीर्ण है । परन्तु सोने की भाँति यह तो उपर उपर की परीक्षा है। (२) भीतरी जाँचके लिये 'छेद' परीक्षा द्वारा यह देखना आवश्यक है कि इन विधि-निषेधोंके पालनके अनुरूप आचारमार्ग एवं क्रियाओंका विधान है या नहीं। अगर ऐसा विधान नहीं है, अथवा है तो विधि-निषेधके अनुरूप नहीं किन्तु प्रतिकूल आचार-मार्गका विधान है, तो वहाँ शुद्धताकी अपेक्षा रखना मूर्खता ही होगी । (३) तीसरे प्रकारकी सर्वतोगवेषी 'ताप' परीक्षाके लिये यह जरुरी है कि उस तत्त्व व्यवस्थामें ऐसे सिद्धान्त मान्य होने चाहिए जिनसे विधि-निषेध एवं आचारमार्गकी संगति बिठाई जा सके । उदाहरणार्थ यदि हम देखें तो जैनदर्शनमें अहिंसा-संयम तपकी विधि (विधान) और क्रोध-लोभ, हिंसा -असत्य इत्यादिका निषेध प्रतिपादित है । इन विधिनिषेधोंके पालनमें उपयोगी पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि क्रिया एवं आचारोंका मार्ग भी दिखलाया गया है। और इन सबके मूलमें अनेकान्तवादका सिद्धान्त मान्य रखा गया है। किसी भी वस्तुमें भिन्न भिन्न दृष्टिकोणोंसे सिद्ध सब धर्मोंको मान्य रखना उसको अनेकान्तवाद कहते हैं। जीवको लेकर यदि विचार करें तो ऐसा कहा जा सकता है कि जीवको यदि नित्यानित्य मानें तभी विधि निषेधका उपदेश सफल हो सकता है। जीव (१) अनित्य अर्थात् परिवर्तनशील हो तभी उसमें भिन्न भिन्न क्रियाओंका कर्तृत्व संगत हो सकता है; और (२) नित्य होने पर ही पाप-पुण्यसे बद्ध होकर उनके फल रूपसे दुःख या सुखका भोक्ता भी खुद बन सकता है। इसी प्रकार गुणगुणको भेदाभेदके अनेकान्त सिद्धान्त पर ही जीवमें हिंसा-अहिंसा आदि आचारके मार्ग संगत हो सकते है । यदि हिंसा-अहिंसा आदि गुण जीवसे एकान्त भिन्न हों तो उनका जीवके साथ कोई सम्बन्ध स्थापित न हो सकेगा; और यदि वे एकान्त अभिन्न हों तो जीव सदा के लिये या तो हिंसास्वरूप या अहिंसास्वरूप ही रहेगा। इस परसे
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