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________________ फलित यही होता है कि अनेकान्तवाद वगैरह यथार्थ सिद्धान्तोंके उपर ही जीव-अजीव आदि तत्त्वोंकी व्यवस्था शुद्ध रूप धारण कर सकती है, और ये सब सिद्धान्त, तत्त्व, एवं आचार जैनदर्शनमें सुचारु रूपसे पाये जाते हैं, और ये ही जैनदर्शनकी विशेषता रूप हैं। इन्हें स्वयं समझना और दूसरोंको यथावत् समझाना चाहिए। यौवन एवं वृद्धावस्था, और आभ्यन्तर भिन्न भिन्न विषयोंके नये नये ज्ञानादिकी अवस्था जैसी अनेक अवस्थाओंके परिवर्तन के बावजूद भी आत्मद्रव्य चेतनरूपसे सदा सनातन-नित्य बना रहे तभी वह सब परिवर्तनके सहिष्णु स्वयं हो सकता है, और परिवर्तन भी तभी अस्तित्व पाकर स्थान स्थित हो सकते हैं अर्थात् इस नित्यताके आसपास ही याने नित्यतासे संवलित ही प्रतिक्षण आत्माके नए नए परिवर्तन भी दिखाई पडते है; एवं नित्यता भी परिवर्तनशीलतासे संवलित रहती है। इसीलिए आत्माको कथंचित् अनित्य कहा जाता है। यहाँ कथंचित् का अर्थ है अमुक दृष्टिकोणसे । वस्तुमें अनेक दृष्टिकोणोंसे अनेक स्वरूप पाये जाते हैं । अतः समस्त दृष्टिकोणोंसे विचार करनेपर आत्मा न तो केवल नित्य ही या न केवल अनित्य ही ज्ञात होती है, एवं वह अलग अलग नित्यता और अनित्यता शील भी नहीं, वरन् विजातीय नित्या-नित्यात्मक ठीक ही प्रतिभासित होता है। यहाँ यह बात दृष्टान्तसे देखिए, आत्माका अनेकान्त स्वरूप चावलमें दाल मिलाकर जो हम खाते हैं, वैसा नहीं है। उसमें सामान्यतया चावल और दालका कुछ अलग अलग-सा स्वाद आता है। परन्तु इसी उपमा द्वारा समझाना हो तो हम कह सकते हैं कि दाल और चावल मिलाकर जो खिचडी तैयार की जाती है उसके जैसा नित्यानित्य आदि अनेकान्त स्वरूप है। खिचडीमें दाल और चावलका अपना अपना स्वतंत्र अस्तित्व नष्ट हो जाता है और दोनोंसे विलक्षण एक और ही किस्मके स्वाद आदि गुणधर्म प्रकट होते हैं । यही बात नित्यानित्य स्वरूप में भी लागू होती है। यह नित्यानित्यरूपता खिचडीकी भाँति एक एक विलक्षण संयोजन है; और इसीलिये अनित्य पक्षपर नित्य पक्ष द्वारा किये जानेवाले आक्षेपोंसे तथा नित्य पक्षपर अनित्य पक्ष द्वारा किए जानेवाले आक्षेपोंसे यह सर्वथा मुक्त है। भला, खिचडीपर दाल-चावल दोनोंमेसे कौन आक्षेप करेगा? और फिर भी खिचडी खिचडी है, दाल-चावल नहीं । दूसरा दृष्टांत सूंठ और गुडका भी दिया जा सकता है। जब तक ये दोनों अलग अलग होते हैं तबतक इनके रसादि गुण और पित्त-दोषकारिता, कफ-दोषकारिता आदि विशेष दूसरे ही होते हैं, पर इन दोनोंको मिलाकर लड्डु बनानेसे रसादिमें परिवर्तन होकर एक नया और पित्तकफकारितासे विनिर्मुक्त अपूर्व गुणदायी पदार्थ तैयार होता है। ऐसे अनेक दृष्टांत हम अपने व्यावहारिक तथा वैज्ञानिक अनुभवके बल पर दे सकते हैं। यहाँ पर तो कहने का अभिप्राय इतना ही है कि मिट्टीका ढेर लगाना एक चीज है और उसीमेंसे एक नया घडा पैदा करना दूसरी चीज है। आत्माकी नित्यानित्यरूपता नित्यता और अनित्यताका ढेर नहीं है; वह तो वस्तुतः नित्य एवं अनित्य इन दोनोंकी सामग्रीमेंसे एक सुन्दर घडेके निर्माण जैसा कोई अभिनव स्वरूप निर्माण है। इस स्वरूप निर्माणके प्रतिपादनको हम सर्वसमन्वयकारी और सर्वजनहितावह स्याद्वाद या अनेकान्दवाद कहते है। आत्माके बारेमें कथंचित् नित्यानित्यके अनेकान्तवादका स्वरूप माननेपर ही बन्ध-मोक्षकी उपपत्ति हो सकती है, तथा कृतनाश एवं अकृतागम रूप दोषोंका आक्षेप भी निर्मूल किया जा सकता है। एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य पक्षमें तो बन्ध-मोक्षकी अनुपपत्ति एवं कृतनाश और अकृतागम रूप दोष आते हैं। कारण यह है कि अगर आत्मा नित्यमात्र है तो वह बद्ध ही नहीं; यदि बद्ध होता तो एकरूपसे ही सदा बद्ध रहता । एवं यदि बद्ध नहीं तो मुक्त होनेका क्या? एकान्त अनित्य पक्षमें भी बंध-मोक्ष नहीं, क्यों कि बंधके हेतुओ सेवन करनेवाला तो नष्ट हो गया, फिर बंध किसको ? एवं मोक्ष-साधक अनुष्ठान करनेवाला खुद नष्ट हो गया तब मोक्ष किसका ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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