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(ल.) तदेतेऽधिकारिणः परार्थप्रवृत्तलिङ्गतोऽवसेयाः माभूदनधिकारिप्रयोगे दोष इति । लिङ्गानि चैषां तत्कथाप्रीत्यादीनि, तद्यथाः- (१-५) तत्कथाप्रीतिः, निन्दाऽश्रवणम्, तदनुकम्पा, चेतसो न्यासः, परा जिज्ञासा । तथा (६-१०) गुरुविनयः, सत्कालापेक्षा, उचितासनं, युक्तस्वरता, पाठोपयोगः । तथा(११-१५)लोकप्रियत्वं, अगर्हिता क्रिया, व्यसने धैर्य,शक्तितस्त्यागो, लब्धलक्ष्यत्वं नेति । एभिस्तदधिकारितामवेत्यैतदध्यापने प्रवर्तेत, अन्यथा दोष इत्युक्तं ।
(पं०) ३. 'तेष्वनुकम्पे' ति । तेषु = चैत्यवन्दननिन्दकेषु, अनुकम्पा = दया यथा 'अहो कष्टं' ! यदेते तपस्विनो रजस्तमोभ्यामावेष्टिता विवशा हितेषु मूढा इत्थमनिष्टमाचेष्टन्त इति ।' ४. 'चेतसो न्यास' इति = अभिलाषातिरेकाच्चैत्यवन्दने एव पुनः पुनर्मनसः स्थापनं । ५. 'परा जिज्ञासे' ति । 'परा' = विशेषवती, चैत्यवन्दनस्यैव जिज्ञासा = ज्ञातुमिच्छा । ७. 'सत्कालापेक्षेति सन्ध्यात्रयस्वरूपसुन्दरकालाश्रयणम् । ९. 'युक्तस्वरते'तिपरयोगानुपघातिशब्दता । १०. 'पाठोपयोग' इति । पाठे = चैत्यवन्दनादिसूत्रगत एव, उपयोगो = नित्योपयुक्तता। १५. 'लब्धलक्ष-(क्ष्य)त्वं चेति' । लब्धं = निर्णीतं सर्वत्रानुष्ठाने लक्षं (क्ष्यं) = पर्यन्तसाध्यं येन स तथा तद्भावस्तत्त्वं; यथा 'जो उ गुणो दोसकरो, न सो गुणो, दोसमेव तं जाण । अगुणो वि हु होइ गुणो, विणिच्छओ सुन्दरो जत्थ ॥ त्ति ।
हितकारी कृत्यों में तो क्या, किन्तु परलोकहितकारी कृत्योंमें भी अनुचितकारी है अर्थात् जन्मान्तर के हितसे विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाला होता है, वह इस लोकमें निजकुलादि के उचित विशुद्ध आचारका पालन क्या करता होगा? नहीं कर सकता । शास्त्र में ऐसा कहा है "परलोकविरुद्ध अर्थात् परलोकमें अहित हो ऐसे कृत्यों को आचरनेवाले का दूरसे परित्याग करना चाहिए । जो अपनी आत्मा को ठगता है, भ्रम से अहित में लगाता है, वह दूसरे के लिए कल्याणरुप कहां से हो?"
प्र०- इस जन्म के कृत्य और परजन्म के कृत्य, जो कि औचित्यके विषय हैं, वे तो अलग अलग हैं, फिर ऐसा क्यों?
उ०- विषय अलग होने से जीवका एक स्थानमें औचित्य न होनेपर भी अपर स्थानमें औचित्य हो ऐसा कोई औचित्य ही नहीं बन सकता। अर्थात् प्रत्यक्ष अहितका तो त्याग और परोक्ष अहितकी प्रवृत्ति, ऐसा कोई इस जन्म व पर जन्म का औचित्य नहीं है । तात्पर्य, औचित्य वही है जो दृष्ट वा अदृष्ट दोनों अहित का त्याग करा सके। अतः परोक्ष में अहित करनेवाला कृत्य सुन्दर कृत्य है ही नहीं। जिस कृत्य से परलोकमें सुन्दर परिणाम होता है वहीं कृत्य यहां भी सुन्दर होता है। वास्ते इस लोक एवं परलोकमें हितकारी कृत्यों को प्रधान करने का जो विधिपरता गुण है वह प्राप्त हो, तभी 'उचीत जीवन उपाय' का गुण आ सकता है। दूसरा कोई प्रकार नहीं है। सोच समझ के कार्य नहीं करने वाले ही ऐसा मानते हैं कि एक स्थान में अनुचितकारी लोक दूसरे स्थान में उचितकारी हो सकते है।
__ अनधिकारी को धर्म देने में हित तो नहीं, वरन् अनर्थ होता है; यह न हो इस वास्ते उपस्थित मनुष्य अधिकारी है या नहीं यह परोपकार करनेवालोंने बहुमानादि चिन्हों द्वारा पहले देखना चाहिए।
___अधिकारी के तीन लक्षणों के बाह्य १५ चिह्न . प्र०- उपस्थित मनुष्यमें बहुमानादि है या नहीं यह कैसे जाना जाए?
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