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उ०- बहुमान संपन्नतादि तीनों गुण बाह्य चिह्नोसे ज्ञात होते हैं; और उस-उसके चिह्न है प्रस्तुत धर्म की कथाप्रीति वगैरह। जैसे कि
१. उस धर्म की बातों पर प्रीति २. उस धर्म की निन्दाको न सुनना, ३. धर्म-निन्दक पर दया, ४. उस धर्ममें चित्त का स्थापन, ५. उस धर्म की तीव्र जिज्ञासा।
६. गुरुविनय, ७. धर्मक्रिया के योग्य कालकी अपेक्षा, ८. उचित आसन-मुद्रादि, ९. उचित आवाज, १०. सूत्रपाठमें दत्तचित्तता।
११. लोकप्रियता, १२. अनिन्द्य क्रिया, १३. संकटमें धैर्य, १४. शक्ति-अनुसार दान, १५. ध्येयका निर्णीत ख्याल।
इनका थोडा स्पष्टीकरण प्रस्तुत चैत्यवन्दन धर्म पर ही देखिए । चैत्यवन्दन धर्मका अधिकारी यदि चैत्यवन्दन पर अंतर में सच्चा बहुमान वाला अर्थात् प्रधान दृष्टि वाला होगा, तब उसमें
. (१) चैत्यवन्दन की चर्चा पर प्रेम प्रीति होगी। जैसे व्यापारी को बाजार-भावतालादि की चर्चा पर प्रीति रहती है, इस प्रकार चैत्यवन्दन संबन्धी बातें करने सुनने में बहुत रस-रुचि होगी। यह रुचि देखने से बहुमानिता ज्ञात होती है। ऐसे ही आगे के गुणों में । (२) वस्तुके बहुमान से संपन्न आदमी उस वस्तु की निन्दा कभी सुनेगा नहीं, निन्दा में तभी आदर-आकर्षण होता है जब कि हृदय में बहुमान न हो। (३) चैत्यवन्दनादि की निन्दा करने वाले पुरुष पर द्वेष-तिरस्कारादि भी नहीं, किन्तु दया जाग्रत हो जैसे कि 'अरे ! खेदकी बात है कि ये बिचारे रजोभाव-तमोभावसे पीडित लोग परवश बनकर अपने हितसे अनजान होते निंदा जैसी अनिष्ट चेष्टाएँ कर रहें हैं।' (४) चैत्यवन्दनकी उत्कट रुचि रहनेसे इसमें चित्तको भी बारबार स्थापित करेगा । (५) चैत्यवन्दनके सूत्रसूत्रार्थ-अनुष्ठानादिका ज्ञान प्राप्त करनेकी विशिष्ट सक्रिय इच्छा भी बनी रहेगी।
विधिपरता गुणको लेकर विशेषतया..... (६) चैत्यवन्दनसूत्र के दाता गुरुका पूरा विनय करता हो । (वस्तुका ऊंचा बहुमान सहजतया वस्तुदाताकी अच्छी विनयभक्ति कराता ही है) (७) चैत्यवन्दन करने में तीन संध्यास्वरूप सुन्दर कालका आश्रय करता हो । योग्य कालकी अपेक्षा रखता हो। (८) चैत्यवन्दन में जानु-नमन, योगमुद्रादि, उचित आसनका ठीक पालन रखता हो । (९) चैत्यवन्दन करते समय अपनी आवाज इतनी ही ऊंची रखता हो कि जिससे दूसरे के धर्मयोगमें बाधा न पहुंचे । (धर्मका सच्चा बहुमान अपने धर्मकी तरह दूसरे के धर्मकी हानिसे दूर रखेगा।) (१०) चैत्यवन्दन करते समय उसके सूत्रपाठमें ठीक सतत दत्तचित्त रहता हो; (न कि चित्त सूत्र-अर्थको छोडकर.अन्यत्र भटकता रहे)
'उचितवृत्ति' नामक गुणका स्वरूप इन चिन्होंसे ज्ञात हो सकता है :
(११) वह मनुष्य लोकप्रिय होना चाहिए । विशुद्ध जीवन-आचारका यह प्रभाव है कि लोक में वह अप्रिय न होगा। (१२) इनका कोई कृत्य निन्द्य नहीं होगा; जीवन अनिन्द्य कृत्योंसे और अनिन्द्य वचनोंसे बहता होगा। (१३) संकटमें धैर्य रखेगा। अधीरता करना अनुचित है, इससे सत्त्वका अभाव सूचित होता है, और सत्त्व न हो तो धर्म निश्चल भावसे कैसे करेगा? (१४) शक्तिके मुताबिक दान भी करता होगा । उचित आचारशीलतामें यह एक प्रधान अंग है। (१५) अन्तिम साध्य निर्णीत होगा; आखिर परिणाम तक दृष्टि देकर, अपनी प्रवृत्तिका अच्छा परिणाम निश्चित करके प्रवृत्ति करता होगा। क्योंकि जो गुण अंतमें जा कर दोषकारी होता है, वह गुण ही नहीं है; उसको तो दोष ही जान लेना । दृष्टान्तसे कसाईको छूरीका दान अंतमें जीवघातके बड़े दोषका सर्जक होता है, तब ऐसे दानको गुण कैसे कहे ? यों ही जहां परिणाम सुन्दर आता है वहां वह प्रारम्भमें दोष
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