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__(ल०) न चामुष्मिकविधावप्यनुचितकारिणोऽन्यत्रोचितवृत्तय इति, विषयभेदेन तदौचित्याभावात् । अप्रेक्षापूर्वकारिविजृम्भितं हि तत् ।
(पं०) 'न चामुष्पिके' इत्यादि । न = च नैव । 'च' शब्दः उचितवृत्तेविधिपूर्वकत्वभावनासूचनार्थः । आमुष्मिकविधौ = परलोकफले कृत्ये, किं पुनरैहिकविधाविति 'अपे' रर्थः । अनुचितकारिणो = विरुद्धप्रवृत्तयः । अन्यत्र = इहलोके। उचितवृत्तयः = स्वकुलाधुचितपरिशुद्धसमाचारा भवन्ति, परलोकप्रधानस्यैवेहाप्यौचित्यप्रवृत्तेः। तदुक्तम्- "परलोकविरुद्धानि कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् । आत्मानं योऽतिसन्धत्ते सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः ॥" कुत एतदित्याह - विषयभेदेन = भिन्नविषयतया, 'तदौचित्याभावात्' तयोः = इहलोकपरलोकयोः,
औचित्यस्य = दृष्टादृष्टापायपरिहारप्रवृत्तिरूपस्य अभावात् । यदेव ह्यमुष्मिन् परिणामसुन्दरं कृत्यमिहापि तदेवेति विधिपरतापूर्वकमेवोचितवृत्तित्वमिति । प्रकारान्तरनिरसनायाह - 'अप्रेक्षापूर्वकारिविजृम्भितं हि तत्' अप्रेक्षापूर्वकारिणो ह्येवं विज़म्भन्ते यदुतैकत्रानुचितकारिणोऽप्यन्यत्रोचितकारिणो भवेयुरिति।।
(३) उचित वृत्तिवाला हो, अर्थात् ब्राह्मणादि स्वकुल के उचित पवित्र आजीविका रखने वाला हो।
प्र०- यह ठीक है कि जहां तक चैत्यवन्दन के शुभभाव में उपघात करने वाले ज्ञानावरण आदि कर्म मौजूद हों, वहां तक सम्यक् चैत्यवन्दन का लाभ संभवित नहीं, चूं कि चैत्यवन्दन का अधिकारी वही माना जा सकता है जिसके तथाप्रकार के कर्म नष्ट हो चुके हों । अत इस कर्मक्षय से अधिकारी ज्ञात हो जाय, लेकिन अधिकारी में बहुमान आदि लक्षण होने आवश्यक क्यों समझे जाये?
उ०- इस लिये कि विशिष्ट अर्थात् एक कोटाकोटी सागरोमपकाल के भीतर की कालस्थिति जो अन्तकोटाकोटी कही जाती है, इससे अधिक कालस्थिति वाले जो ज्ञानावरण वगैरह कर्म, उनका विनाश चर्मचक्षु से दुर्जेय हैं, जब कि बहुमानादि सुज्ञेय हैं। और ज्ञानावरण इत्यादि कर्म का विनाश होने के सिवाय चैत्यवन्दनादि धर्म का बहुमानी वगैरह विशिष्ट स्वरूप प्रगट होता नहीं। इसलिए तादृश कर्मक्षय के द्योतक जो बहुमान, विधिपरतादि लक्षण, वे देखने आवश्यक है। बात तो सही है कि ऐसे लक्षण से निश्चित होने वाले विशिष्ट कर्मनाश वाला ही अधिकारी है, दुसरा नहीं।
प्र०- ठीक है, तब यह बतलाओ कि इन तीन लक्षणों का उपन्यास इस ढंग से ही क्यों नियत किया गया?
उ०- इन तीन स्वरूप का क्रम वैसा ही है। सचमुच जो चैत्यवन्दनादि धर्म के वस्तुगत्या बहुमानी नहीं है, वे विधिपर नहीं हो सकते । कारण यह है कि विधिप्रयोग भावप्रधान है। चैत्यवन्दनादि के उपर बहुमान न हो, तो यह भाव, जो कि चैत्यवन्दनादि संबन्धी संवेगादि शुभ आत्मपरिणाम-स्वरूप है और चैत्यवन्दनादि कृत्य करने में हेतुभूत है, वह प्रगट होता नहीं । तात्पर्य, उस धर्म पर बहुमानी हो अर्थात् अन्य पुरुषार्थ की अपेक्षा उस धर्म की प्रधानता रखता हो, तभी उस धर्माचरण में उपयोगी अच्छा संवेग-संभ्रमादि भावोल्लास हो सकता है। और बिना भावोल्लास कृत्य की क्या किंमत ?
प्र०- ठीक है, बहुमान के बाद ही विधिपरता हो; लेकिन ऐसा क्यों, कि 'विधिपरता' के बाद ही 'उचित वृत्ति' गुण होना चाहिये?
उ०- कारण यह है कि जो विधिपर नही है वह उचितवृत्ति नहीं हो सकता । अर्थात् जो, इस लोक के
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