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(ल०) न हि विशिष्टकर्मक्षयमन्तरेणैवंभूता भवन्ति । क्रमोप्यमीषामयमेव । न खलु तत्त्वत एतद् बहुमानिनो विधिपरा नाम, भावसारत्वाद्विधिप्रयोगस्य । न चायं बहुमानाभावे, इति ।
(पं०) ननु ज्ञानावरणादिकर्मविशेषे उपहन्तरि सति सम्यक्चैत्यवन्दनलाभाभावात् तत्क्षयवानेवाधिकारी 'वाच्यः, किमेतद्बहुमान्यादिगवेषणया ? इत्याह 'नहीत्यादि' । न = नैव, हिः = यस्माद्, विशिष्टकर्मक्षयं, विशिष्टस्य = अन्तःकोटिकोट्यधिकस्थितेः कर्मणो = ज्ञानावरणादेः, क्षयो = विनाशः, तम् अन्तरेण = विना, इत्थंभूता = एतद्बहुमान्यादिप्रकारमापना, भवन्ति = वर्तन्ते । एतद्बहुमान्यादिव्यज्यकर्मविशेषक्षयवानेवाधिकारी, नापर इति । भवतु नामैवं, तथापि कथमित्थमेषामुपन्यासनियम इत्याह ‘क्रमोऽपी' त्यादि। 'न चायमि'ति, न च = नैव, अयं = भावः, चैत्यवन्दनादिविषय-शुभपरिणामरूप संवेगादिः विधिप्रयोगहेतुरिति ।
___ तीनों का अर्थ यह है:- (१) यहां धर्म के अधिकारी का प्रस्ताव चलता है, अतः अर्थी का मतलब है धर्म की उत्कट अभिलाषा रखनेवाला । यदि धर्म की इच्छा ही न होगी, या उत्कट इच्छा नहीं, किन्तु सामान्य इच्छा होगी, तब वह मनुष्य धर्म के कुछ अंश में भी काठिन्य का पालन करने को तय्यार न होगा, और धर्म को बीच में ही छोड देगा। ऐसे मनुष्य से धर्म कलंकित होगा, अत: वह धर्म का अधिकारी नहीं है। इस वास्ते धर्म की उत्कट अभिलाषा वाला लिया । (२) अर्थी की तरह वह समर्थ भी होना चाहिए । 'समर्थ' वह है, जो धर्म का पालन, किसी की अपेक्षा न रखकर, निजी रुचि और बल पर कर सके, एवं उस धर्म के अनजान किसी पुरुष से डरे नहीं। इस का शुभ परिणाम यह होगा कि धर्म स्वीकारने के बाद यदि उस धर्म में विघ्नकारक कोई आ गया, तब भी वह निरुत्साह हो कर धर्म त्याग करे वैसा नहीं । (३) ऐसा भी धर्म का अधिकारी आगम शास्त्र से निषिद्ध न होना चाहिए । अर्थात् शास्त्र में जो दोष योग्यता के बाधक दिखलाए हैं, उन दोषों से वह रहित होना चाहिए । अन्यथा दोष के कारण वह कदाचित् धर्म भ्रष्ट होगा, अथवा औरों को धर्मनिन्दा का निमित्त देगा। प्रस्तुत विषय में चैत्यवंदन सूत्र का पठन-अध्ययन भी धर्म है, इसलिए उसका प्रदान करने के पहले, अधिकारिता है या नहीं, यह देखना आवश्यक है।
प्र०- धर्म तो चैत्यवन्दन का अनुष्ठान या उसके द्वारा निष्पन्न शुभ अध्यवसाय है, फिर यहां सूत्रपाठ को धर्म क्यों कहा?
उ०- कभी कारण को कार्यशब्द से बोला जाता है । दृष्टान्त से, जहां 'दूध ही मेरा जीवन है' ऐसा बोलते हैं वहां जीवन वस्तुत आयुष्यकर्मका फलभोग है किन्तु उस मनुष्य को आयुष्यरक्षा का कारण दूध होने से, उपचार से कार्य 'जीवन' शब्द कारणीभूत दूध में लगा दिया। यों ही यहां शुभ अध्यवसाय या चैत्यवन्दन के अनुष्ठान स्वरूप धर्म में कारणभूत जो सूत्रपाठ, उसको धर्म कहा ।
प्र०- अधिकारी करके अर्थी, समर्थ वगैरह जो कहा, ऐसा अधिकारी कौन हो सकता है? उ०- ऐसा अर्थी इत्यादि स्वरूपवाला अधिकारी वही है जो :
(१) धर्म का बहुमान रखने वाला हो अर्थात् धर्म-अर्थ-काम, इन तीन वर्गस्वरूप पुरुषार्थ की चिंता में धर्म को ही बहु मानता हो, अर्थात् धर्म की मुख्य चिन्ता करता हो । एवं
(२) विधि-तत्पर हो, अर्थात् इस लोक में और परलोक में हितकारी याने सुयोग्य फल देनेवाले कार्यों को ही प्रधान करने वाला हो। और
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