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(ल.) अर्थी समर्थः शास्त्रेणापर्युदस्तो धर्मेऽधिक्रियते, इति विद्वत्प्रवादः, धर्मश्चैतत्पाठादि, कारणे कार्योपचारात् । यद्यैवमुच्यतां के पुनरस्याधिकारिण इति ?
उच्चते,- एतद्बहुमानिनो, विधिपरा, उचितवृत्तयश्च ।
(पं०) अर्थीत्यादि । अर्थी = धर्माधिकारी प्रस्तावात्तदभिलाषातिरेकवान् । समर्थो = निरपेक्षयता धर्ममनुतिष्ठन्न कुतोऽपि तदनभिज्ञाद् बिभेति । शास्त्रेण = आगमेन । अपर्युदस्तः = अप्रतिकुष्टः । स च एवं लक्षणो यः (१) त्रिवर्गरूपपुरुषार्थचिन्तायां धर्ममेव बहुमन्यते, (२) इहलोकपरलोकयोविधिपरो, (३) ब्राह्मणादिस्ववर्णोचितविशुद्धवृत्तिमांश्चेति । 'विधिपरा' इति, विधिः = इहलोकपरलोकयोरविरुद्धफलमनुष्ठानं, स परः = प्रधानं येषां ते, तथा 'उचितवृत्तय' इति = स्वकुलाधुचित्तशुद्धजीवनोपाया इति,
यहाँ पहले, किसी धर्मानुष्ठानको सम्यक्करणकी कक्षामें स्थापित करनेके लिए आवश्यक विशेषताएँ ठीक दिखलाई; जैसे कि, (१) प्रायः प्रस्तुत सूत्रसे कही हुई विधिसे चित्तोपयोग रखना जरुरी है। यहाँ पर प्रस्तुत सूत्र चैत्यवन्दन है।
प्र०- चैत्यवन्दन सूत्र में साक्षात् विधि तो नहीं कही गई?
उ०- ठीक है, तब भी चैत्यवन्दनके व्याख्याग्रन्थोंमें जो विधि कही गई है, उसे सूत्रोक्त विधि ही समझना चाहिए । क्योंकि व्याख्याग्रन्थ सूत्रके अर्थका ही विस्तार है। व्याख्यामें कहा गया भाव सूत्रसे ही कहा हुआ है। यहाँ जो प्रायः सूत्रोक्तविधिसे चित्तोपयोग कहा, इसमें 'प्रायः' शब्द इसलिये कहा कि कोई साधकको मार्गानुसारी अर्थात् सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्गमें अनुकूल ऐसा विशिष्ट कर्मक्षय होवे, तब विधि न जानने पर भी चित्तोपयोग संभवित है। किन्तु सामान्यरूपसे तो विधिपूर्वक दत्तचित्तता रखनी आवश्यक है। वन्दनादि क्रियामें चित्त तन्मय न रहने से वह भावशून्य या संमूर्छिम क्रिया होती हुई वास्तवमें फलदायिनी नहीं हो सकती। एवं (२) क्रियामें चित्तकी जाग्रति रखनेपर भी यदि वह जगतकी जड वस्तुकी आशंसा (इच्छा, उद्देश) से की जाए, तब भी अशुद्ध उद्देशके कारण इससे ज्ञानावरणीयादि कर्मका क्षय तो नहीं, बल्कि कलुषित वासनायुक्त ऐसा पापानुबंधी तुच्छ पुण्यकर्मका अर्जन होता है कि फलतः उस पुण्यका उदय उसे दुर्गतिमें घसीट ले जाता है। अतः पौद्गलिक उद्देश नहीं रखना चाहिए। (३) एवं चित्तचाञ्चल्य और अशुद्ध आशंसा न होनेपर भी क्रियाकारक सम्यग्दृष्टि न हो किन्तु मिथ्यात्व, अर्थात् सराग असर्वज्ञ आत्मासे कथित तत्त्वाभासपर श्रद्धा रखनेवाला हो तो तब भी हृदय भ्रान्त रहनेसे वह कर्मक्षय स्वरूप फल नहीं मिलता। इसलिए वीतराग सर्वज्ञ परमात्मासे कथित तत्त्वपर ही एक श्रद्धा स्वरूप सम्यग्दर्शन भी चाहिए । (४) एवं ये तीनों दोष न होनेपर भी क्रियाकालमें हृदय देवाधिदेवके प्रति भक्तियुक्त न हो, भरपूर प्रेम-आस्था और बहुमानसत्कारसे संपन्न न हो तब भी क्रिया शुष्क रह जाने से उल्लेखनीय कर्मक्षय नहीं हो सकता। अतः भक्ति भी आवश्यक है। इस प्रकार दत्तचित्तता, कर्मक्षयका शुद्ध उद्देश, सम्यक्त्व और भक्तिसे किया गया धर्मानुष्ठान ही सम्यक्करण है।
__धर्म के अधिकारी के लक्षण प्राचीन विद्वज्जनों का कथन है कि धर्म में अधिकारी वही, जो १अर्थी हो, २समर्थ हो, एवं ३शास्त्र से अनिषिद्ध हो।
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