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________________ (ल०) आह - लब्ध्यादिनिमित्तं मातृस्थानतः सम्यक्करणेऽपि शुभभावानुपपत्तिरिति । न, तस्य सम्यक्करणत्वासिद्धेः । तथाहि प्रायोऽधिकृतसूत्रोक्तेनैव विधिनोपयुक्तस्याऽऽर॒शंसादोषरहितस्य३ सम्यग्दृष्टे ४र्भक्तिमत एव सम्यक्करणं; नान्यस्य, अनधिकारित्वात्; अनधिकारिणः सर्वत्रैव कृत्ये सम्यक्करणाभावात् । श्रावणेऽपि तर्ह्यस्याधिकारिणो मृग्याः ? को वा किमाह, एवमेवैतत् । न केवलं श्रावणे, किं तर्हि, पाठेऽपि; अनधिकारिप्रयोगे प्रत्युतानर्थभावात्, 'अहितं पथ्यमप्यातुरे' 'इति वचनप्रामाण्यात् । (पं०) प्रायोधिकृतसूत्रोक्तेनैव विधिनेति, अधिकृतसूत्रं = चैत्यवन्दनसूत्रमेव, तत्र साक्षादनुक्तोऽपि तद्व्याख्यानोक्तो विधिस्तदुक्त इत्युपचर्यते, सूत्रार्थ प्रपंचरूपत्वाद् व्याख्यानस्य । प्रायोग्रहणाद् मार्गानुसारितीव्रक्षयोपशमवतः कस्यचिदन्यथाऽपि स्यात् । प्र० - ठिक है सम्यक्करणसे शुभ अध्यवसाय होनेके कारण चैत्यवन्दन विवक्षित फलके दाता हो, लेकिन चैत्यवन्दनका व्याख्यान- परिश्रम निरर्थक क्यों नहीं ? उ०- इस शंका के निवारणार्थ कहते हैं कि चैत्यवन्दनका सम्यक्करण संपादित करने के लिए ही व्याख्यान का यह प्रयास किया जा रहा है। जगतमें देखते हैं कि किसी क्रिया के सूत्रार्थ को न जाननेवाले प्रायः उसको सम्यग् रूपसे करनेमें समर्थ नहीं हो सकते हैं। प्र० - विशिष्ट शक्ति या संपत्तिरूप लब्धि वगैरह पानेके लिए कपटसे कोई आदमी शुभ भावका उद्देश न रखे, और चैत्यवन्दन सम्यग्ररूपसे करता हो फिर भी उसे शुभभाव होता तो नहीं ! तब यह कैसे कहा जा सकता है कि चैत्यवन्दनका सम्यक्करण तो अवश्य सफल है ? उ०- इस प्रकारका चैत्यवन्दन सम्यग्रूपसे हुआ नहीं कहा जा सकता । सम्यकरण इस तरहसे लभ्य है । जो प्रायः १ २ ३ ४ ही नहीं है । और जो अधिकारी नहीं, उसके एक भी कार्यमें सम्यक्करणरूपता नहीं होती । प्रस्तुत सूत्रमें कही गई विधिसे ही सूत्रक्रियामें दत्तचित्त हो, पौद्गलिक आशंसासे रहित हो, सम्यग्दृष्टि हो, और भक्तिमान हो, - ऐसे साधकका अनुष्ठान सम्यक्करण होता है, अन्यका नहीं, क्योंकि वह अधिकारी प्रo - तो फिर सूत्र सुनानेमें भी अधिकारीका अन्वेषण आवश्यक है क्या ? उ०- - कौन निषेध करता है ? ऐसा ही है। केवल श्रवण करानेमें अर्थात् सूत्रको अर्थसहित सुनाने में तो क्या किन्तु पाठमें भी अर्थात् मात्र सूत्रोच्चारण करानेमें भी अधिकारिता देखनी चाहिए। क्यों कि अनधिकारीको अच्छी भी बात देनेमें लाभ तो दूर, वरन् नुकशान होता है। अच्छा भोजन भी रोगीको अहितकर होता है - ऐसा वचन- प्रमाण मिलता है । Jain Education International ११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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