________________
(ल.) आह, 'नायमेकान्तो यदुत ततः शुभ एव भावो भवति, अनाभोगमातृस्थानादेविपर्ययस्यापि दर्शनादिति' । अत्रोच्यते, - सम्यक्करणे विपर्ययाभावः । तत्सम्पादनार्थमेव च नो व्याख्यारम्भप्रयास इति । न ह्यविदिततदर्थाः प्रायस्तत्सम्यक्करणे प्रभविष्णवः इति ।
(पं.) एकान्त इति = एकनिश्चयः । अनाभोगेत्यादि, अनाभोगः = सम्मूढचित्ततया व्यक्तोपयोगाभावः । (मातृस्थान) दोषांच्छादकत्वात् संसारिजन्महेतुत्वाद् वा मातेव माता = माया, तस्याः स्थानविशेषो मातृस्थानम् । आदिशब्दाच्चलचित्ततया प्रकृतस्थानवालम्बनोपयोगादन्योपयोगग्रहस्तस्माद्, विपर्ययस्यापि = अशुभ - भावस्यापि । शुभभावस्तावत्ततो दृश्यते एवेति सूचको 'ऽपि' शब्दः । दर्शनाद् = उपलम्भात् ।
(पं.)-अत्र = शुभभावानेकान्तप्रेरणायां, उच्यते = 'नानेकान्त' इत्युत्तरममिधीयते । कथम् ? सम्यक्करणे विपर्ययाभावात् । यत्र तु 'सम्यक्करणे विपर्ययाभाव' इतिपाठस्तत्र प्रथमैव हेतौ । अस्तु सम्यक्करणे शुभाध्यवसायभावेन विवक्षितफलं चैत्यवन्दनम्, परमकिंचित्करं तद्व्याख्यानमित्याशङ्क्याह तत्सम्पादनेत्यादि । तत्सम्पादनार्थं = चैत्यवन्दनसम्यक्करणसम्पादनार्थम्। अरिहंत परमात्माके प्रति वन्दनरूप है, और वन्दनमें होनेवाले परमात्माके अलौकिक पवित्रतम गुणों के स्मरणकीर्तनादिके कारण चैत्यवन्दन अलौकिक मानसिक शुभ परिणति (भावधारा) को उत्पन्न करता है । यह शुभ परिणति यथासम्भव ज्ञानावरणीयादि स्वरूप कर्मबन्धनके क्षय, क्षयोपशम (कथंचित् क्षय), या उपशमको पैदा करती है; क्यों कि यह शुभ परिणाम (भावधारा) कर्मबन्धनके हेतुभूत अशुभ अध्यवसायसे बिलकुल विरुद्ध है। चैत्यवन्दनसे, इस प्रकार, कर्मक्षय होते होते सर्वविरति..... यावत् सर्वज्ञ वीतरागतापर्यन्तकी प्राप्ति होती है; पीछे सर्व कर्मका नाश होकर, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूपी चार पुरुषार्थोमें श्रेष्ठ मोक्षपुरुषार्थ प्रकट होता है। अत: ऐसा मोक्षतकका फल संपादित करानेवाले चैत्यवन्दनको निष्फल कहना अयुक्त है। एवं 'उसकी व्याख्याका व्याख्येय अर्थ निष्फल होनेसे उस व्याख्याका आरम्भ न करें,' यह भी कहना अनुचित है।
(यहाँ वादी प्रश्न करता है :-) प्र०- ऐसा कोई एक निर्णय नहीं है कि चैत्यवन्दनसे केवल शुभ अध्यवसाय हो; चूंकि मोहमूढ चित्तके कारण चैत्यवन्दनमें असावधानी, एवं कपट और चाञ्चल्यादि होने पर अशुभ भाव भी दिखाई दे सकता है। १ असावधानीमें चित्त चैत्यवन्दनमें है ही नहीं। २ और कपटमें चैत्यवन्दन अपवित्र उद्देशसे किया जाता है, फलतः शुभभाव नहीं होता। कपटको मातृस्थान कहा गया है। माता जैसे पुत्रको जन्म देती है और पुत्रके दोषों को ढकती-छिपाती है, इस तरह कपट-माया भी जीवके दोषों को छिपाकर जीवको सांसारिक जन्मपरंपरा देती है। इस तरह माया के साथ किया गया चैत्यवन्दन शुभ भाव किस प्रकार पैदा कर सके ? एवं ३ चंचलताकी वजहसे भी मन चैत्यवन्दनके योगमुद्रादि आसन, सूत्राक्षर, सूत्रार्थ, और जिनप्रतिमा-इन चारोंमें एकाग्र न होकर, किसी अन्यमें ही रमण करता है। वहाँ भी चैत्यवन्दनसे शुभ भाव नहीं हो सकता। फिर वह एकान्ततः सफल कैसे कहा?
उ०- यहाँ चैत्यवन्दनसे 'शुभभाव होना अनेकान्त है अनिर्णीत है', - इस कथनपर यह कहा जाता है कि शुभभावस्वरूप फलका अनेकान्त नहीं है, किन्तु एक निर्णय ही है। क्यों कि चैत्यवन्दन सम्यग् तरीकेसे करनेसे अशुभभाव होता ही नहीं। कदाचित् कोई शंका करे कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org