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( ल - ( १०-११ ) प्रणिधानमाहात्म्योपदेशौ :-) न हि समग्र सुखभाक् तदङ्गहीनो भवति, तद्वैकल्येऽपि तद्भावेऽहेतुकत्वप्रसङ्गात् ; न चैतदेवं भवतीति योगाचार्यदर्शनम् । 'सेयं भवजलधिनौः प्रशान्तवाहिते 'ति परैरपि गीयते । 'अस्य ( प्र० अयम्) अज्ञातज्ञापनफलः सदुपदेशो हृदयानन्दकारी परिणमत्येकान्तेन ज्ञाते त्वखण्डन (प्र० न खण्डन ) मेव भावतः, अनाभोगतोऽपि मार्गगमनमेव सदन्धन्यायेन,' इत्यध्यात्मचिन्तकाः ।
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तदेवंविधशुभफलप्रणिधानपर्यन्तं चैत्यवन्दनम् । तदनु आचार्यादीनभिवन्द्य यथोचितं करोति कुर्वन्ति वा कुग्रहविरहेण ।
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(पं० -) इदमेव व्यतिरेकतः प्रतिवस्तूपन्यासेनाह, – 'न' = नैव, 'हिः ' = यस्मात्, 'समग्रसुखभाक्' : संपूर्णवैषयिकशर्मसेवकः, 'तदङ्गहीनः', तस्य = समग्रसुखस्य, अङ्गानि = हेतवो वयोवैचक्षण्य - दाक्षिण्यविभवौदार्य-सौभाग्यादयः तैः, हीनो रहितो, भवति । विपक्षे बाधकमाह - 'तद्वैकल्येऽपि' = तदङ्गाभावेऽपि, 'तद्भावे' = समग्रसुखभावे, 'अहेतुकत्वप्रसङ्गात्' = निर्हेतुकत्वप्राप्तेरिति ।
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'सेयमि 'तिप्रणिधानलक्षणा । 'प्रशान्तवाहिता' इति, प्रशान्तो
रागादिक्षयक्षयोपशमोपशमवान्,
वहति = वर्त्तते, तच्छीलश्च यः स तथा तद्भावस्तत्ता ।
(३) निरन्तर आसेवन :- दीर्घकाल तक करने की साधना भी सतत निरन्तर रूप से करनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं कि बीच बीच में अनियत अन्तर पड़ जाए, जैसे कि साधना आज की और चार दिन नहीं की, फिर दो दिन साधना पर टूट पड़े और आठ दिन की ही नहीं। ऐसा नहीं, किन्तु प्रतिदिन तो प्रतिदिन, दिनान्तरसे तो दिनान्तर से, सुबह शाम तो रोज सुबह शाम, ऐसी निरन्तर धारा से साधना होती रहनी चाहिए। तभी साधना का अच्छा संस्करण आत्मा में हो सकता है, जिससे आगे जा कर उच्च कक्षा की साधना संपन्न हो सके ।
( ४ ) सत्कारयुक्त आसेवन :- दीर्घकाल एवं सतत साधना भी हृदय के उच्च आदर-सद्भाव वाली एवं कायिक- वाचिक विनय-भक्ति- बहुमान से संपन्न होनी चाहिए; क्यों कि इनके बिना तो कितनी ही साधना केवल द्रव्यसाधना होती है, भावसाधना नहीं । हृदय के भाव एवं कायिक मर्यादा-पालन से रहित साधना की क्या कीमत? शुभ संस्करण में ये प्रथमतः आवश्यक हैं।
( ५ - ९ ) श्रद्धा - वीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञा का विकास :- शुभानुष्ठान का प्रणिधान पूर्वक दीर्घकाल निरन्तर सादर आसेवन करते करते यह भी ध्यान रखने योग्य है कि श्रद्धा - वीर्य - स्मृति - समाधि एवं प्रज्ञा का विकास होता रहे ।
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( ५ ) श्रद्धावृद्धि :- पहले श्रद्धा, शुद्ध मार्ग की रुचि बढाने की है। अनुष्ठान का आसेवन तो करते हैं लेकिन पहले से ही वह अनुष्ठान निरतिचार निर्दोष शुद्ध संपूर्ण शास्त्रयोग - वचनानुष्ठान स्वरूप और सामर्थ्ययोग - असंगयोग रूप नहीं होता है; वह यों कई काल, कई जन्म तक इच्छायोग एवं प्रीति-भक्ति अनुष्ठान स्वरूप होता रहता है; लेकिन शुद्ध मार्ग की रूचि श्रद्धा - तीव्राभिलाषादि द्वारा शुद्ध शास्त्रयोग - वचनानुष्ठान और आगे सामर्थ्ययोग - असङ्गानुष्ठान के निकट ले जाता है ।
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(६) वीर्यवृद्धि :- शुद्ध मार्ग की रुचि के साथ साथ अनुष्ठानशक्ति का भी विकास करने योग्य है। अत: वर्तमान अनुष्ठानासेवन ऐसा खेदादि दोषयुक्त नहीं चाहिए, ताकि अनुष्ठानशक्ति बढ़ती रहे। वह बढती बढती
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