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________________ होती है; फिर उसकी आकांक्षा होने की तो बात ही क्या? फलतः कल्याणदृष्टि एवं जिनपूजासत्कार के अभाव से चित्त में निर्दोष प्रसन्नता असंभवित हो जाती है; अत: उसे तदधीन श्रद्धादि गुणों की वृद्धि होनी भी असंभत्रित ही है। (यहां इतना समझना जरूरी है कि जिन पूजासत्कार न करने वाला पुरुष उसे द्रव्यव्यय के लोभ से नहीं करता है या मिथ्या मान्यता से नहीं करता है। वहां, (१) अगर द्रव्यव्यय के भय से जिनपूजासत्कार नहीं करता है तब जिनेन्द्र देव की अपेक्षा धन पर अत्यधिक राग होने से चित्तप्रसन्नता एवं श्रद्धादिवृद्धि होना अशक्य है; अथवा, (२) अगर मिथ्या मान्यता वश पूजासत्कार नहीं करता है तब मिथ्यात्व वश उनमें प्रसन्नता तथा श्रद्धादि का आविर्भाव होना नितान्त असंभवित है।) प्रणिधान के प्रत्यक्ष-परोक्ष फल और दोनों के समन्वय का रहस्य : यहां ललितविस्तराकार महर्षिने 'अतो हि प्रशस्त भावलाभाद् विशिष्टक्षयोपशमादिभावतः प्रधानधर्मकायादिलाभः, तत्रास्य सकलोपाधिविशुद्धिः, दीर्घकाल-नैरन्तर्य-सत्काराऽऽसेवनेन श्रद्धा-वीर्य - स्मृति - समाधि - प्रज्ञावृद्ध्या', - इन पदों से प्रणिधान का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष फल दिखलाते हुए दोनों फलों के बीच का सुन्दर समन्वयरहस्य और उच्च साधना की कुंजी प्रदर्शित की। यह इस प्रकार, शुभानुष्ठान मात्र में किये गए प्रणिधान से प्रत्यक्ष फलरूप में शुभ आत्म-परिणति एवं मिथ्यात्वमोहादि-क्षयोपशम सहित पुण्यानुबन्धी पुण्य प्राप्त होता है और परोक्ष फल रूप में ऐसा प्रधान धर्मकायादि का लाभ होता है कि जहां पुनः आराधना प्रारम्भ करने के लिए आवश्यक एक साधक आत्मा के विशेषण सभी उपस्थित रहेते हैं। पूर्वोत्तर फलों के बीच सुंदर अनुरूपता के अलावा उत्तर में अधिकता भी संपादित होती है। इसका यही रहस्यमय कारण है कि साधना साधक के द्वारा प्रणिधानपूर्वक की गई है। उच्च साधना की कुंजी : __ ग्रन्थकार महर्षि द्वारा प्रदर्शित किए गए प्रणिधान - माहात्म्य के साथ दीर्घकाल, नैरन्तर्य - इत्यादि का प्रतिपादन उच्च साधना की कुंजी दे जाता है; कहा जाता है कि अगर उच्च कक्षा की साधना अभिलषित हो, तब इसके लिए अनुष्ठान में आवश्यक है, - (१) प्रणिधान; (२ - ४) दीर्घकाळ आसेवन, निरन्तर आसेवन, और सत्कार बहुमान युक्त आसेवन; एवं . (५ - ९) श्रद्धा - वीर्य - स्मृति - समाधि - प्रज्ञा की वृद्धि । (१) प्रणिधान :- जिस किसी भी परार्थवृत्ति या क्षमादि गुण की अथवा प्रभु - भक्ति, दानशीलादि या अहिंसादि धर्म की साधना करनी हो, इसमें प्रणिधान पहला आवश्यक है; पूर्वोक्तानुसार प्रणिधान यह कि परमकर्तव्यबुद्धि - संज्ञानिग्रह - निराशंसभाव एवं परोपकार - दयाभाव से युक्त शुभ भावोल्लास, विषय - समपित मन तथा यथाशक्ति क्रिया । (२) दीर्घकाल आसेवन :- अनुष्ठान का आसेवन दो चार वक्त करने से पर्याप्त नहीं है, किन्तु दीर्घ काल पर्यन्त करते रहना चाहिए। तभी प्रारम्भ प्रारम्भ में खास तौर पर मन लगा कर की जाती साधना आगे जा कर सहज हो जाती है, साधना का ही दिल बन जाता है, साधना आत्मसात् होती है। साधना के दीर्धकाल तक बढते हुए संस्कारों में साधना को सहज, निर्दोष और ज्वलन्त बनाने की सामर्थ्य है। ३७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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