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उल्लंघन किये बिना यह यथाशक्ति क्रियापालन प्रणिघान का लिङ्ग है। इससे सूचित होता है कि तात्त्विक प्रणिधान केवल आन्तरिक भावात्मक नहीं है किन्तु बाह्य क्रिया से भी युक्त होता है।
(७) प्रणिधान की प्रबल सामर्थ्य :
• प्रणिधान की इतनी प्रबल सामर्थ्य है कि यह प्रणिधान अति अल्प काल के लिए भी किया जाए तब भी वह सुन्दर है, क्यों कि वह उत्तम पदार्थ का साधक है; प्रणिधान स्वर्गादि समस्त अभ्युदय एवं निःश्रेयस मोक्ष को खिंच लाता है।
(८. ९.) प्रणिधान का प्रत्यक्ष और परोक्ष उत्तम लाभ :
अति अल्प काल भी प्रणिधान हो, तब भी वह सुन्दर है; क्यों कि वह अति गंभीर और अति उदार है। प्रणिधान में अति गांभीर्य-औदार्य पूर्वोक्तानुसार समझ लेना। यह इसलिए कि प्रणिधान के द्वारा प्रत्यक्ष में रागद्वेष - मोह से नहीं छुआ हुआ शुभ आत्म परिणाम होता है।
ऐसे शुभ परिणाम से परोक्ष लाभ रूप में (१) विशिष्ट मिथ्यात्वमोहनीयादि कर्मों का क्षयोपशम याने एकदेश क्षय एवं (२) विशिष्ट शुद्ध मनुष्यगति, शुभ शरीर - संस्थान - संघयण (हड्डीसंबन्ध) आदि पुण्यकर्मों का उपार्जन होता है। इससे परलोक में प्रधान धर्मकायादि की प्राप्ति होती है। 'प्रधान' अर्थात् दृढ संघयण एवं शुभ संस्थान से संपन्न होने की वजह से सर्वोत्कृष्ट; 'धर्मकाय' अर्थात् धर्मसाधना के लिए योग्य शरीर । 'आदि' शब्द से उज्ज्वल कुल-जाति-आयुष्य-देश-कल्याणमित्रादि की भी प्राप्ति होती है।
प्रधान धर्मकायादि के लाभ से उस कायादि में प्रणिधानकर्ता जीव को समस्त कलङ्कस्थान नष्ट हो जाने से निखिल विशेषणों की विशद्धता प्राप्त होती है; अर्थात् अब जो विशेषताएं प्राप्त होती हैं वे सभी के सभी विशिष्ट धर्मसाधना में उपयुक्त हो वैसी प्राप्त होती हैं। यह इस प्रकार, - लाखों पूर्व (१ पूर्व = ७०५६० अब्ज वर्ष) जैसे दीर्घ काल तक जिनपूजा का, बिना अन्तराय, सतत रूप से अनुभव करने से श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधि-प्रज्ञा की वृद्धि होती है; इसलिए कहा जाता है कि उसे समस्त विशेषणों की विशुद्धता प्राप्त होती है।
यहां 'श्रद्धा' = सम्यग्दर्शनादि शुद्ध मोक्षमार्ग की रुचि; 'वीर्य' = मोक्षमार्ग के अनुष्ठानों को पालने की शक्ति; 'स्मृति' = अनुभूत अनुष्ठानादि पदार्थों का स्मरण; 'समाधि' = चित्त की स्वस्थता; 'प्रज्ञा' = गहन विषयों का बहु, बहुविध, शीघ्र, सहज, असंदिग्ध एवं स्थिर बोध करने की शक्ति । इन पांचो की 'वृद्धि' = उत्कर्ष ।
वीतराग सर्वज्ञ विश्वोपकारक श्री तीर्थंकर भगवान की लगातार पूजा एवं सत्कार सत् प्रणिधान पूर्वक करते रहने से चित्त में एक ऐसी प्रसन्नता प्रादुर्भूत होती है कि जिससे श्रद्धादि पांच गुणो की वृद्धि हो अर्थात् मोक्षमार्ग की रुचि, मोक्षमार्ग पालन करने की शक्ति, अनुभूत किये गए पवित्र अनुष्ठानादि का सुखद संस्मरण, चित्त की स्वस्थता, एवं गहन विषयों का बहु बहुविध इत्यादि बोध करने की शक्ति वृद्धिंगत होती है। जो जिनपूजासत्कार से पराङ्मुख है ऐसा जीव बेचारा अदृष्टकल्याण होता है, कल्याण के प्रति उसकी दृष्टि ही नहीं
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