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________________ ही अन्तिम सामर्थ्ययोग-असङ्गानुष्ठान तक पहुँचाएगी। (७) स्मृतिवृद्धि :- अनुष्ठान का आसेवन करते चलते हैं, वहां यह भी ध्यान रहे कि अनुभूत मार्ग एवं तत्त्व का स्मरण सतेज होता रहना चाहिए। इसके लिए सांसारिक वैषयिक विचारणा कम करते रहना होगा, और इससे कुवासना मन्द मन्दतम होती हुई सुसंस्कार की वृद्धि होती रहेगी। . (८) समाधिवृद्धि :- उच्च कक्षा की साधना के लिए दीर्घकाल निरन्तर सादर आसेवन द्वारा श्रद्धावीर्य - स्मृति बढाते हुए साथ साथ समाधि याने चित्तस्वास्थ्य, मानसिक स्वस्थता की वृद्धि करते रहना चाहिए। समाधिवृद्धि यह साधना में कौशल्य का प्रतीक है। (९)प्रज्ञावृद्धि :- अनुष्ठानासेवन द्वारा श्रद्धादि की वृद्धि करते हुए प्रज्ञा बढाते याने अनुष्ठान एवं तत्त्व की सूक्ष्मताओं को बहु, बहुविध, शीघ्र, स्वतः निश्चित इत्यादि रूप से जानने की शक्ति भी बढाते रहना चाहिए। फलतः कैवल्यसाधक असंगानुष्ठान की सामर्थ्य बढेगी। मूल प्रणिधान पर ही यह सब शक्य है। सकल विशेषण-शुद्धि की विपरीत रूप से सिद्धि : दीर्घकाल निरन्तर जिनपूजासत्कार के आसेवन में प्रणिधान के द्वारा श्रद्धा - वीर्यादि की वृद्धि होने से सकल विशेषणों की शुद्धि कही गई। अब इसी बात को विपरीत रूप से कहने के लिए किसी प्रतिपक्ष वस्तु का उदाहरण लेकर कहा जाए तो ऐसा कह सकते है कि जो संपूर्ण ही वैषयिक सुख का भोक्ता है, वह उस सुख के कारणभूत योग्य वय, विचक्षणता, दाक्षिण्य, विपुल वैभवसामग्री, सौभाग्य आदि साधनों से रहित होता ही नहीं है। इन कारणभूत अङ्कों में से एक भी अङ्क की त्रुटि हो, तब संपूर्ण सुख का उपभोग हो ही सकता नहीं । अगर कहें 'एकाधा अङ्ग कम होने पर भी संपूर्ण सुख का उपभोग होने में क्या बाधा है ? तब ऐसा कहने का अर्थ तो यह हुआ कि संपूर्ण सुख उन समग्र कारणों के अधीन न रहा ! अर्थात् वह निर्हेतुक हो गया ! किन्तु ऐसा मानना तो उचित नहीं, क्यों कि कोई भी कार्य निर्हेतुक हो ही सकता नहीं; अगर कार्य हुआ तब वहां पूर्व काल में कारणसामग्री अवश्य होनी चाहिए।' - ऐसा योगाचार्य का भी दर्शन बतलाता है। इसके उपनय में सिद्ध होता है कि ठीक इसी प्रकार धर्मकार्य में प्राप्त सकलोपाधिशुद्धि का सुख भी दीर्घकालीन निरन्तर जिनसत्कारासेवन से जनित श्रद्धा - वीर्यादि वृद्धि स्वरूप अंगो से हीन नहीं हो सकता है; सुख है तो सुख के अङ्ग भी है। प्रणिधान का यह महत्त्व है कि वह ऐसी शुभ पारलौकिक स्थिलि पैदा करता है। (१० - ११) प्रणिधान का माहात्म्य एवं उपदेशफल : यह प्रणिधान तो 'प्रशान्तवाहिता' है, 'प्रशान्त' अर्थात् राग - द्वेषादि की ज्वालाओं के उपशम वाला, रागादि के क्षय-उपशम-क्षयोपशम वाला। उसकी 'वाहिता' = वर्तन । क्यों कि पहले कह आये प्रणिधान में 'विशुद्धभावनासारं' इत्यादि लक्षण के मुताबिक पवित्र भावनाशील हृदय, शुभ में अर्पित मन, एवं शुभ क्रिया - प्रवृत देह प्रवर्तमान रहने से रागद्वेषादि का प्रशमन विद्यमान रहता है। यह प्रशान्तवाहिता संसारसागर तैरने में नौका का कार्य करती है, कहिए वह भवसमुद्रनावा है, ऐसा दूसरों ने भी कहा है। इस प्रणिधानादि का सदुपदेश जो कि अज्ञात तत्त्व-मार्ग का बोध कराता है वह भव्यात्माओं को अपूर्व दर्शन द्वारा हृदय को आनन्द प्रदान करता है और वह अन्तरात्मा में एकान्त रूप से परिणत हो जाता है। ३७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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