SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रार्थना प्रणिधान करने ही चाहिए। ४. प्रणिधान यह सिद्धि का आद्य सोपान : कहा गया है कि कोई भी अहिंसादि धर्म आत्मसात् करने में प्रणिधान से प्रारम्भ कर प्रवृत्ति, विघ्नजय, सिद्धि एवं विनियोग, - ये पांच आशय जरूरी है; और ये पांच क्रमशः उत्तरोत्तर प्राप्त होते हैं; क्यों कि वे उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रकर्षशाली चित्तोपयोग याने मानस परिणाम स्वरूप हैं। प्र० - प्रणिधान तो विशुद्धभावयुक्त कर्तव्यनिर्णय एवं कर्तव्य में मन के समर्पण स्वरूप होने से मानसोपयोग रूप हुआ, लेकिन प्रवृत्ति, विघ्नजय आदि तो बाह्य चेष्टा रूप होने से मानसोपयोग स्वरूप कैसे? उ० - प्रवृत्ति, विघ्नजय, वगैरह मात्र बाह्य चेष्टात्मक नहीं किन्तु तथाविध आभ्यन्तर मानस - परिणतियुक्त बाह्य चेष्टात्मक हैं। आन्तर तथाविध मनोभाव अगर न हो तब तो बाह्य चेष्टा निर्जीव क्रियातुल्य हो जाती है। इसलिए तथाविध मनोभाव अति आवश्यक है; इतना ही नहीं बल्कि प्रवृत्ति, विघ्नजय आदि में मुख्यतः तो अंतरात्मा में जो तदनुरूप कुशल परिणति पैदा होती है वह है। इसलिए प्रवृत्ति आदि को भी आशय कहते हैं। 'षोडशक' शास्त्र में इनका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है, - प्रणिधानादि पांच आशयों का स्वरूप : • 'प्रणिधान' आशय इस प्रकार का मानसिक शुभ परिणाम है जिसमें, (१) स्वीकार्य अहिंसादि धर्मस्थान की मर्यादा में अविचलितता हो, (२) उस धर्मस्थान से अधःवर्ती जीवों के प्रति करुणाभाव हो, किन्तु द्वेष नहीं, (३) सत्पुरुषों के 'स्वार्थ गौण, परार्थ मुख्य' स्वभावानुसार परोपकार-करण प्रधान हो, (४) प्रस्तुत धर्मस्थान सावद्य (सपाप) विषय से रहित निरवद्य वस्तु संबन्धी हो और इसमें मनका लक्ष हो । •'प्रवृत्ति' नाम के आशय में (१) प्रस्तुत अहिंसादि धर्मस्थान के प्रतिलेखना (जीवनिरीक्षण) आदि उपायों में निपुण प्रवृत्ति, (२) उन्ही में अप्रमाद भावना से उत्पन्न अतिशय प्रयत्न, और (३) अकाल फलवाञ्छा रूप उत्सुकता का अभाव, इन तीनों से संपन्न शुभ चित्तपरिणाम होना चाहिए। • 'विघ्नजय' संज्ञक आशय में जघन्य - मध्यम - उत्कृष्ट, इन त्रिविध विघ्नों का विजय करना आवश्यक है। जिस प्रकार प्रवास में कण्टक - ज्वर - दिग् व्यामोह, इन त्रिविध विघ्नों के जय के लिए क्रमश: निष्कण्टक मार्ग स्वीकार, नीरोगी शरीर, एवं मार्ग का यथार्थ-ज्ञान - अन्य ज्ञाता पर श्रद्धा और पूर्ण उत्साह आवश्यक है, तथा उनके द्वारा विघ्नजय हो सकता है फिर अस्खलित अव्याकुल एवं नियत दिग्गमन से यथेष्ट नगरादि में पहुँच जाता है, इसी प्रकार प्रस्तुत धर्मस्थान की प्रवृत्ति में बाधाकारी (१) कण्टक स्थानीय शीतोष्णादि परीसहों का तितिक्षा से जय, (२) ज्वरस्थानीय रोगादिविघ्नों का आरोग्यसंपादक शास्त्रोक्त आहारादिविधि के पालन से जय, एवं (३) दिङ्गमोहस्थानीय मिथ्यात्व रूप विघ्न का मनोविभ्रमनिवारक सम्यक्त्वभावना से जय करना जरूरी है। त्रिविधविघ्न जय करने से प्रस्तुत धर्मस्थानोपाय में अस्खलित, अव्याकुल एवं नियत स्वरूप वाली प्रवृत्ति बनी रहती है। • 'सिद्धि' नामक आशय प्रस्तुत अहिंसादि धर्मस्थान के आत्मसात्करण रूप याने तात्त्विक प्राप्ति स्वरूप है, 'तात्त्विक' इसलिए कि ऐसे सिद्ध अहिंसादि वाले के संनिधान में नित्यवैरी जीवों का भी वैरत्याग इत्यादि फल सिद्ध होता है। यह सिद्धि (१) सूत्रार्थनिष्णात व भावनादिमार्गाभ्यासी तीर्थसमान गुरु के प्रति विनय ३६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy