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________________ प्रणिधान की आवश्यकता आदि का दर्शक यन्त्र (१) आवश्यकता समस्त शुभ अनुष्ठानों में प्रथम आवश्यक कारण प्रणिधान । (२) अन्तिम फल मोक्ष । (३) निदान से वैलक्षण्य निदान में चित्त आसक्ति-मग्न है, प्रणिधान में अनासक्ति सन्मुख। (४) सिद्धि में आद्य सोपान कोई भी गुणसिद्धि या धर्मसिद्धि प्रणिधान-प्रवृत्ति-विघ्नजय | सिद्धि - विनियोग, इस क्रम से होती है। (५) अधिकारी प्रणिधान के बहुमान वाला, विधितत्पर और उचितवृत्ति वाला, यह प्रणिधान | का अधिकारी है। (६) स्वरूप विशुद्ध भावनाप्रधान हृदय और प्रस्तुत विषय में अपित मन से युक्त यथाशक्ति शभ क्रिया यह प्रणिधान । (७) सामर्थ्य अत्यल्प भी सम्यक् प्रणिधान सकल कल्याणों का आकर्षक है। (८) पारलौकिक प्रशस्त भाव से निर्मित पापक्षय-पुण्यबन्ध द्वारा धर्मकाय-उत्तमकुल कल्याणमित्रादि की प्राप्ति । (९) प्रत्यक्षफल प्रशस्त भाव एवं दीर्घकाल सतत सादर सेवन से श्रद्धा-वीर्य-स्मृति - | समाधि-प्रज्ञा की वृद्धि। (१०) माहात्म्य, रहस्य | संसारसागर पार करने की नौका; रागादि-प्रशमन का वर्तन । (११) उपदेशप्रभाव प्रणिधान का उपदेश बोधजनक, हृदयानन्दकारी, अखण्डित भाव का | निर्वाहक, एवं मार्गगमन का प्रेरक। १ - २. प्रणिधान की आवश्यकता और फल : प्र० - भगवान के प्रभाव से भवनिर्वेदादि का प्रणिधान अगर सफल हो भी, लेकिन बात तो यह है कि इनका प्रणिधान करना ही क्यों ? इनमें प्रवृत्ति ही की जाए। उ०-प्रार्थना रूप में प्रणिधान यह समस्त शुभ अनुष्ठान का मूलभूत कारण है, और अन्त में जा कर मोक्ष रूप फल को उत्पन्न किये बिना प्रणिधान कोई प्रवृत्ति सत् ही नही है; विद्यार्जन, व्यापार आदि में यह प्रतीत है। ३. प्रणिधान यह निदान से विलक्षण क्यों ? : प्र० - प्रार्थना प्रणिधान तो आशंसा स्वरूप होने से एक प्रकार का निदान (नियाj) है और निदान तो मोक्ष में प्रतिबन्ध करेगा, उ० - ऐसा मत समझना, क्यों कि पहले कह आये हैं कि निदान के लक्षण जो पौद्गलिक आशंसादिरूपता है यह इसमें न होने से यह प्रणिधान मोक्ष का प्रतिकूल नहीं है। प्रार्थना - प्रणिधान की प्रवृत्ति तो समस्त पौद्गलिक सङ्ग से विनिर्मुक्त असङ्गभाव में लगे हुए चित्त की एक महान प्रवृत्ति है। ऐसा मोक्षासक्त चित्तव्यापार तो मोक्ष के लिए मात्र अप्रतिकूल ही नहीं किन्तु अनुकूल है; क्यों कि यह भवनिर्वेदादि की आशंसा-प्रवृत्ति प्रणिधान रूप है, और बिना प्रणिधान प्रवृत्ति, विघ्नजय आदि आशय सिद्ध नहीं हो सकते हैं । इसलिए ऐसी ३६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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