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________________ (ल०-१. २.-प्रणिधानस्य आवश्यकताफले-) सकलशुभानुष्ठाननिबन्धनमेतद् अपवर्गफलमेव । (३. निदान वैलक्षण्यम्- ) अनिदानम्, तल्लक्षणायोगादिति दर्शितम् । असङ्गतासक्तचित्तव्यापार एष महान् । (४. सिद्ध्यर्थमाद्यसोपानं-) न च प्रणिधानाद् ऋ ते प्रवृत्त्यादयः । एवं कर्तव्यमेवैतदिति, प्रणिधानप्रवृत्ति-विघ्नजय-सिद्धि-विनियोगानामुत्तरोत्तरभावात् । आशयानुरू पः कर्मबन्ध इति । न खलु तद्विपाकतोऽस्यासिद्धिः स्यात् । युक्त्यागमसिद्धमेतत्, अन्यथा प्रवृत्त्याद्ययोगः, उपयोगाभावादिति । धर्माचार्य के उपदेश का पालन । यह हितकारी होता है, क्यों कि वे धर्माचार्य सचमुच अहितकारी नहीं कहते हैं। उपर्युक्त आठ में भवनिर्वेद से लेकर तद्वचनसेवना तक की प्राप्ति भी एक ही बार या मात्र अल्प ही काल के लिए काफी नहीं है इसलिए कहते हैं 'आभवमखण्डा' अर्थात् 'हे भगवन् ! मुझे ये सब जीवन भर या संसारकाल तक के लिए संपूर्ण रूप से प्राप्त हों । ये भवनिर्वेदादि कल्याण स्वरूप हैं और इतने कल्याण की प्राप्ति होने पर अवश्य झटिति मोक्ष होता है। वीतराग प्रभु के आगे इनकी आशंसा इसलिए की जाती है कि यह आशंसा अचिन्त्य चिन्तामणि सम वीतराग भगवान के प्रभाव से फलवती है, और उनही के प्रभाव से वह कल्याणप्राप्ति मोक्षदायी बनती है। यह दो गाथाओं का अर्थ हुआ। प्रणिधान अब यहां ललितविस्तराकार महर्षि प्रणिधान के विषय पर भव्य प्रकाश डालते है। यह इस प्रकार, (१)- 'सकलशुभानुष्ठाननिबन्धनं' पद से प्रणिधान की आवश्यकता; (२)- 'अपवर्गफलं' पद से प्रणिधान का अन्तिम फल; (३)- 'असङ्गतासक्त-चित्तव्यापार' पद द्वारा प्रणिधान का निदान से वैलक्षण्य; (४)- 'न च प्रणिधानाद् ऋ ते प्रवृत्त्यादयः' पद से किसी भी गुणसिद्धि या धर्मसिद्धि करने में प्रणिधान यह आद्य सोपान, (५)- 'नानधिकारिणामिदं' पद से प्रणिधान के अधिकारी; (६)- 'विशुद्धभावनासारं' श्लोक से प्रणिधान का लक्षण -- स्वरूप; (७) - 'स्वल्पकालमपि .... सकलकल्याण ....' इत्यादि पदों से प्रणिधान की अति प्रबल सामर्थ्य; (८) - 'अतो हि प्रशस्तभाव ...' इत्यादि पद से प्रणिधान का पारलौकिक फल; (९) - ‘दीर्घकाल .... श्रद्धावीर्य .... वृद्धया' पदों के द्वारा प्रणिधान का प्रत्यक्ष फल; (१०)- 'सेयं भवजलधिनौः ....' इत्यादि पदों से प्रणिधान का माहात्म्य और रहस्य; (११). 'अस्य .... सदुपदेशः'.... पदों से प्रणिधान के उपदेश का प्रभाव प्रकाशित किया जाता है। इसका सार इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है; ३६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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