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- (ल०-५-६-७. प्रणिधानाधिकारित्वलक्षण-महत्त्वानि :-) ५. नानधिकारिणामिदम् अधिकारिणश्चास्य य एव वन्दनाया उक्ताः, तद्यथा - एतद्बहुमानिनो विधिपरा उचितवृत्तयश्चोक्तलिङ्ग एव । प्रणिधानलिङ्गं तु विशुद्धभावनादि; यथोक्तं, ६.-'विशुद्धभावनासारं तदर्थापितमानसम् यथाशक्तिक्रियालिङ्ग, प्रणिधानं मुनिर्जगौ ॥१॥' इति । ७. स्वल्पकालमपि शोभनमिादं सकलकल्याणाक्षेपात् ।
(पं० -) 'स्वल्पे'त्यादि, 'स्वल्पकालमपि' = परिमितमपि कालं, 'शोभनम्' = उत्तमार्थहेतुतया 'इदं प्रणिधानम् । कुत इत्याह 'सकलकल्याणाक्षेपात्' = निखिलाभ्युदयनिःश्रेयसावन्ध्यनिबन्धनत्वात् । वैयावृत्त्य-बहुमानादि से संपन्न, और (२) हीनगुण या निर्गुण के प्रति दया-दान-दुःखोद्वारादि से युक्त होती है।
. .'विनियोग' आशय में सिद्धि के अनन्तर अन्य जीवों को सिद्ध अहिंसादि धर्मस्थान प्राप्त कराने के प्रवृत्ति होती है। इससे जन्मान्तरों में अपने को उस धर्मस्थान की उत्कर्षयुक्त परंपरा चलती रहती है यावत् उत्कृष्ट धर्मस्थान स्वरूप शैलेशी प्राप्त हो अपना मोक्ष हो जाता है।
__ प्रार्थना-प्रणिधान से यथायोग्य शुभ कर्म का उपार्जन होता है; और बाद में उस शुभ कर्म के विपाक द्वारा धर्मसिद्धि अवश्य होती है। ऐसा अगर न होता हो तब तो प्रवृत्ति आदि शेष सिद्ध ही नहीं होंगे; क्यों कि प्रणिधान का तो कुछ उपयोग ही नहीं हुआ, फिर प्रवृत्ति आदि कैसे सिद्ध हो सके ? इसलिए युक्ति से एवं आगम से यह सिद्ध है कि आशयानुरूप कर्मबन्ध एवं उसके विपाक द्वारा धर्मसिद्धि होती है। अत: यहां भवनिर्वेदादि का प्रणिधान सफल है यह सिद्ध होता है।
(५) प्रणिधान का अधिकारी
• यह प्रणिधान अनधिकारी जीव यथार्थ नहीं कर सकता है। तब प्रभ होगा की इसके अधिकारी कौन ? अधिकारी वे ही है जो चैत्यवन्दन के अधिकारी कहे गये हैं। यह इस प्रकार कि प्रणिधान के बहुमान करने वाले, विधितत्पर एवं उचित जीविकावृत्ति वाले ये अधिकारी है। इन तीन के अवान्तर लक्षण पूर्व कहे मुताबिक ही हैं। • प्रणिधान का स्वरूप विशुद्ध भावना आदि है; जैसे कि कहा गया है, -
___ (६) प्रणिधान का स्वरूप :१. विशुद्धभावनासारं २. तदर्थापितमानसम् । ३. यथाशक्ति क्रियालिङ्गं प्रणिधानं मुनि गौ ॥ अर्थात् जहां (१) विशुद्ध भावना प्रधान है,
(२) मन प्रस्तुत विषय में समर्पित है, एवं
(३) उसकी ज्ञापक बाह्य क्रिया यथाशक्ति हो रही है। वहां प्रणिधान हुआ ऐसा महर्षि कहते हैं। (१) भावना में विशुद्धि क्या ?
इसके लिए 'योगदृष्टि समुच्चय' शास्त्र में वर्णित प्रणामादि की इस प्रकार की संशुद्धि यहां दे सकते हैं। १. उपादेयधियात्यन्तं २. संज्ञाविष्कम्भणान्वितम् । ३. फलाभिसन्धिरहितं संशुद्धमेतदीदृशम् ॥ .
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