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(ल० - पंचदशविधसिद्धा: - ) एवंभूतेभ्यः किमित्याह - 'नमः सदा सर्वसिद्धेभ्यः' । 'नमः' इति क्रियापदं, 'सदा' = सर्वकालं, प्रशस्तभावपूरणमेतदयथार्थमपि फलवत्, चित्राभिग्रहभाववदित्याचार्याः । 'सर्वसिद्धेभ्यः' = तीर्थसिद्धादिभेदभिन्नेभ्यः; यथोक्तम्, १. तित्थसिद्धा, २. अतित्थसिद्धा. ३. तित्थगरसिद्धा, ४. अतित्थगरसिद्धा, ५. सयंबुद्धसिद्धा, ६. पत्तेयबुद्धसिद्धा, ७. बुद्धबोहियसिद्धा, ८. थीलिंगसिद्धा, ९. पुरिसलिंगसिद्धा, १०. नपुंसकलिंगसिद्धा, ११. सलिंगसिद्धा, १२. अण्णलिंगसिद्धा, १३. गिहिलिंगसिद्धा, १४. एगसिद्धा, १५. अणेगसिद्धा, इति ।
( पं० - ) 'चित्राभिग्रहभाववदिति, यथा हि ग्लानप्रतिजागरणादिविषयश्चित्रोऽभिग्रहभावो नित्यमसंपद्यमानविषयोऽपि शुभभावापूरकस्तथा नमः सदा सर्वसिद्धेभ्य इत्येतत्प्रणिधानम् ।
(ल० - ) तत्र ( १ ) तीर्थं प्राग्व्यावर्णितस्वरूपं तच्चतुर्विधः श्रमणसंघः, तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः । (२) अतीर्थे सिद्धा अतीर्थसिद्धाः तीर्थान्तरसिद्धा इत्यर्थः श्रूयते च 'जिणंतरे साहुवोच्छेओ 'त्ति तत्रापि जातिस्मरणादिनाऽवाप्तापवर्गमार्गाः सिध्यन्त्यैव मरुदेवीप्रभृतयो वा अतीर्थसिद्धाः, तदा तीर्थस्यानुपन्नत्वात् । ( ३ ) तीर्थकरसिद्धाः तीर्थकरा एव (४) अतीर्थकरसिद्धा अन्ये सामान्यकेवलिनः । ( ५ ) स्वयंबुद्धसिद्धाः स्वयंबुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः । ( ६ ) प्रत्येकबुद्धसिद्धाः प्रत्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः ।
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अनुपपत्ति नहीं है। इसलिए मुक्त जीव का लोकान्त तक गमन कहने में कोई दोष नहीं। फिर भी अब लोकाग्र से आगे भी जाने में सहायक धर्मास्तिकाय द्रव्य आगे नहीं है इसलिए आगे गति नहीं है। उन लोकाग्रप्राप्त के प्रति, • यह 'लोअग्गमुवगयाणं' का अर्थ हुआ ।
'नमो सया सव्वसिद्धाणं' : १५ सिद्ध :
पूर्वोक्त सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परंपरगत एवं लोकाग्रमुपगत को क्या ? तब कहते है 'नमो सया सव्वसिद्धाणं । यहां 'नमो' यह क्रियापद है, अर्थ है 'मैं नमस्कार करता हूँ' । 'सया' अर्थात् सदा, सर्वकाल । 'नमो सया' प्रणिधान से शुभभावपूरण :
सर्व काल तो नमस्कार होता रहता नहीं, फिर 'नमो सया' कहना निरर्थक होगा ?
प्र०
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उ० - निरर्थक नहीं है, सार्थक है; यह इस प्रकार, जैसे किसीने नियम ग्रहण किया कि 'मैं ग्लान मुनि की सदा सेवाशुश्रूषा करूंगा' । अब नियम का विषय ग्लान मुनि सदा तो मिलता नहीं, न मिलने से वह ग्लानमुनिसेवा हमेशा नही कर पाता है, तब प्रतिज्ञावचन यथास्थित नहीं रहा । फिर भी वह नियम प्रशस्त प्रणिधान स्वरूप होने से हृदय में शुभ भाव पैदा करने और बनाया रखने द्वारा सफल है; ठीक इसी प्रकार यहां सिद्ध - नमस्कार सर्व काल न होता रहने से 'नमो सया' वचन अयथास्थित-सा दिखाई पडने पर भी इसको बोलने में एक प्रशस्त प्रणिधान पैदा होता है, सिद्ध-नमस्कार में चित्त का तन्मयभाव होता है और वह हृदय में शुभ भावोल्लास का पूरक हैं इसलिए 'नमो सया....' यह प्रणिधान निरर्थक नहीं सार्थक है; ऐसा आचार्यों का कथन है । केवल 'नमः' की अपेक्षा ‘सदा नमः' कहने में अधिक शुभ भाव होता है यह अनुभव सिद्ध है ।
'सव्वसिद्धाणं' अर्थात् तीर्थसिद्धादि पंद्रह प्रकार के सिद्धों के प्रति । शास्त्र में सिद्धों के १५ प्रकार इस रीति से कहे गए हैं, (१) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध, (३) तीर्थकरसिद्ध, (४) अतीर्थकरसिद्ध, (५) स्वयंबुद्धसिद्ध,
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