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________________ (ल०-) अथस्वयंबुद्ध-प्रत्येकबुद्धसिद्धयोः कः प्रतिविशेषः इति ? उच्यते, १. बोध्यु-२. पधि३. श्रुत - ४. लिङ्गकृतो विशेषः तथाहि, - स्वयंबुद्धा बाह्यप्रत्ययमन्तरेण बुध्यन्ते, प्रत्येकबुद्धास्तु न तद्विरहेण श्रूयते च बाह्यवृषभादिप्रत्ययसापेक्षा करकण्ड्वादीनां प्रत्येकबुद्धानां बोधिः नैवं स्वयंबुद्धानां जातिस्मरणादीनामिति । उपधिस्तु स्वयंबुद्धानां द्वादशविधः पात्रादिः, प्रत्येकबुद्धानां तु नवविधः प्रावरणवर्जः । स्वयंबुद्धानां पूर्वाधीतश्रुतेऽनियमः, प्रत्येकबुद्धानां तु नियमतो भवत्येव । लिङ्गप्रतिपत्तिः स्वयंबुद्धानामाचार्यसन्निधावपि भवति, प्रत्येकबुद्धानां तु देवता प्रयच्छतीत्यलं विस्तरेण । (६) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (७) बुद्धबोधितसिद्ध, (८) स्त्रीलिङ्गसिद्ध, (९) पुंलिङ्गसिद्ध, (१०) नपुंसकलिंगसिद्ध, (११) स्वलिंगसिद्ध, (१२) अन्यलिंगसिद्ध, (१३) गृहिलिंगसिद्ध, (१४) एकसिद्ध, और (१५) अनेकसिद्ध, । तीर्थसिद्ध आदि का स्वरूप : •(१) यहां 'तीर्थसिद्ध' वे कहे जाते हैं जो तीर्थ उत्पन्न होने के बाद सिद्ध हुए-केवलज्ञान पा कर मुक्ति हुए । तीर्थ अर्थात् परमात्मा के द्वारा स्थापित किया गया पूर्वोक्त स्वरूपवाला श्रमणसङ्घ; - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकात्मक श्रमणप्रधान सङ्घ अथवा, 'श्राम्यति इति श्रमणः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार मोक्षार्थ तपस्या करने वाला चतुर्विध श्रमणसंघ । . (२) अतीर्थसिद्ध' वे हैं जो अन्य तीर्थ में सिद्ध हुए । सुना जाता है कि जिणंतरे साहुवोच्छेओ' - दो जिन के अंतरकाल में जहां पूर्व जिन का शासन लुप्त हो जाता है, वहां पूर्वकी साधुपरंपरा का विच्छेद होता है । उस अन्तरकाल में भी जातिस्मरण (पूर्वजन्म के स्मरण) आदि द्वारा जो मोक्षमार्ग प्राप्त कर सिद्ध होते हैं वे अतीर्थसिद्ध हैं । अथवा ऋषभदेव प्रमुख तीर्थंकर भगवान के तीर्थस्थापना के पूर्व मरुदेवी आदि सिद्ध हुए वे अतीर्थसिद्ध है, क्यों कि तब तीर्थ उत्पन्न ही नहीं हुआ था। (३) तीर्थकरसिद्ध' तीर्थंकर भगवान ही हैं। .(४) अतीर्थकरसिद्ध तीर्थंकर प्रभु से भिन्न सामान्य केवली हैं । (५) स्वयंबुद्ध सिद्ध वे हैं जो स्वयं बुद्ध हो सिद्ध हुए। •(६) प्रत्येकबुद्ध सिद्ध' प्रत्येकबुद्ध हो जो सिद्ध होते हैं। प्र० - स्वयंबुद्धसिद्ध और प्रत्येकबुद्धसिद्ध में क्या अन्तर है ? उ० - दोनों के बोधि, उपधि, श्रुत एवं लिङ्ग इन चार में भिन्नता होने से दोनों में अन्तर है। यह इस प्रकार • (क) स्वयंबुद्ध जो होते हैं वे किसी बाह्य निमित्त के बिना ही बोध प्राप्त करते हैं, बुद्ध-जाग्रत होते हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध उसके बिना नहीं । शास्त्र में सुना जाता है कि करकण्डु आदि प्रत्येकबुद्धों को बाह्य निमित्तभूत बैल, - पहले पुष्ट युवान और बाद में अतिकृश जराजीर्ण हुआ, - इत्यादि का अनुभव मिलने पर वैराग्य बढ़ गया, प्रतिबुद्ध हुए। स्वयंबुद्धों को ऐसा नहीं, क्यों कि उन्हें जातिस्मरण - पूर्वजन्म का स्मरण, अवधिज्ञान, अथवा उत्कट वैराग्य संस्कार आदि होते हैं इसकी वजह से वे प्रतिबुद्ध होते हैं, कोई बाह्य निमित्त पा कर नहीं। • (ख) दोनों में दूसरा फर्क यह है कि स्वयंबुद्ध के पास उपधि याने पात्र आदि धर्मोपकरण बारह प्रकार के होते हैं; पात्र, पात्रबन्ध, रजस्त्राण, पात्रकेसरिका, पात्रस्थापन, गोच्छक, और पटलक, - इन सात प्रकार का पात्रनियोग, ८. रजोहरण, ६. मुखवस्त्रिका, १०. कल्प (पांगरण वस्त्र), ११. कम्बल और १२. कम्बल-अन्तरपट, जबकि प्रत्येकबुद्धों को अन्तिम तीन के सिवाय नौ प्रकार की उपधि होती है। • (ग) स्वयंबुद्धों को पूर्वजन्म में पठित श्रुत का नियम नहीं है, जब कि प्रत्येकबुद्धों को वह अवश्य हो कर यहां उपस्थित होता है। • (घ) स्वयंबुद्धों को साधुवेश का स्वीकार स्वतः या गुरु के समक्ष भी होता है, जब कि प्रत्येकबुद्धों को साधुलिङ्ग का प्रदान देव करता ३४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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