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________________ ( ल० - 'लोअग्गमुवगयाणं' - ) एतेऽपि कैश्चिदनियतदेशा अभ्युपगम्यन्ते, - 'यत्र क्लेशक्षयस्तत्र, विज्ञानमवतिष्ठते । बाधा च सर्वथास्येह, तदभावान्न जातुचित् ॥' इति वचनात् । एतन्निराचिकीर्षयाऽऽह - 'लोकाग्रमुपगतेभ्यः' । लोकाग्रम् ईषत्प्राग्भाराख्यम्, तदुप : सामीप्येन, निरवशेषकर्म्मविच्युत्त्या तदपराभिन्नप्रदेशतया गताः उपगताः । उक्तं च, - = जय एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अनोन्नमणाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता (प्रo अन्नोन्नसमोगाढा पुट्ठा 'सव्वे य लोगंते) ॥' तेभ्यः । आह, - 'कथं पुनरिह सकलकर्म्मविप्रमुक्तानां लोकान्तं यावद्गतिर्भवति ? भावे वा सर्वदैव कस्मान्न भवतीति ?' अत्रोच्यते, पूर्वावेश ( प्र० वेध )वशाद् दण्डादिचक्र भ्रमणवत् समयमेवैकमविरुद्धेति न दोष इति; एतेभ्यः । ? ... सत्ता में से भी मोहनीय सर्वथा क्षीण ऐसी वीतरागता होती है । (१३) सयोगि गुणस्थानक प्राप्त होने के पूर्व ज्ञानावरणीय आदि घाती कर्म नष्ट हो जाने से यहां सर्वज्ञ - सर्वदर्शी एवं अनंत वीर्यादिसंपन्न अवस्था होती है, किन्तु योग यानी मन-वचन-काया की प्रवृत्ति रहती है । (१४) अयोगी गुणस्थानक में जीव उन योगों से सर्वथा रहितं शैलेशी अवस्था वाला होता है, शैलेशी याने पर्वतराज मेरुवत् निष्प्रकम्प आत्मप्रदेश वाला होता है। वहां पांच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण के काल जितने काल तक रह कर अवशिष्ट समस्त अघाती कर्मों का नाश करके मोक्ष प्राप्त करता है। सिद्ध परमात्मा इस क्रम की परंपरा से मुक्ति को प्राप्त हुए हैं अत: वे 'परम्परागत ' I 'लोअग्गमुवगयाणं': मुक्त का गमन कैसे ? : ऐसे भी सिद्ध भगवान किसी नियत देश में नहीं रहते है, - ऐसा कई एक लोग मानते हैं। उनका वचन है,"यत्र क्लेशक्षयस्तत्र विज्ञानमवतिष्ठते । बाधा च सर्वथास्येह तदभावान्न जातुचित् ॥' 11 अर्थात् जहां रागादि क्लेशों का क्षय होता है वहां अब शुद्ध विज्ञान बचता है; और बाधा का कारण क्लेश न होने से उसे अब यहां सर्वथा किसी प्रकार की बाधा नहीं हो सकती है। तात्पर्य, संसार के मुताबिक अब किसी स्थान विशेष में निरुद्ध नहीं होना पड़ता ।' इस मत के विरुद्ध में यहां कहते है 'लोअग्गमुवगयाणं' 'लोअग्ग' = लोकाग्र = 'इषत्प्राग्भार' नाम की चौदह राजलोक के ऊपरवर्ती सिद्धशिला, 'उवगय' = समस्त कर्मों का क्षय होने पूर्वक उस सिद्धशिला के ऊपर उपगत, अर्थात् अन्य सिद्धों के साथ उनसे अवगाहित आकाशप्रदेश में ही अपने आत्मप्रदेश स्थापित कर मिले जुले प्राप्त हुए; जैसे एक ज्योति में ज्योति मिलती है। कहा गया है कि जिस आकाश खण्ड में एक सिद्ध भगवान रहे हैं उसी में संसार क्षीण होने से मुक्त हुए अनंत सिद्ध भगवान रहे हुए हैं। वे भी अन्योन्य को कोई भी बाधा न करते हुए. अव्याबाध सुखसंपन्न होकर आसानी से परस्पर को प्राप्त हैं। प्र० - यहां जब समस्त कर्मों से मुक्ति हो गई, तब अब लोकान्त तक जाने की गति कैसे हो सकती है । और अगर होती है तब फिर सदा ही गति क्यों नही होती रहती है ? Jain Education International उ०- जिस प्रकार दण्ड से चक्र को घुमाया, अब दण्ड हटा लेने पर भी चक्र पूर्व आवेश वश अल्प का भ्रमण करता है इस प्रकार मुक्त जीव पूर्व आवेश वश एक समयमात्र ऊर्ध्व गति करता है, इसमें कोई ३४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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