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________________ न संसारे न निर्वाणे स्थितो भुवनभूतये । अचिन्त्यः सर्वलोकानां चिन्तारत्नाधिको महान् ॥१॥ अर्थात् 'वह परमात्मा न संसार में है, न मोक्ष में, किन्तु है सही, और वह जगत के कल्याण के लिए रहा हुआ है, उसका स्वरूप समस्त लोगों के लिए अचिन्त्य है, कल्पनातीत है, एवं वह चिन्तामणि रत्न से भी अधिक प्रभावशाली है' । लेकिन यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, इस कथन की अयुक्तता सूचित करने के लिए कहते है 'पारगयाणं' पारप्राप्त अर्थात् संसार या प्रयोजन - समूह के पर्यन्त को प्राप्त; तात्पर्य, जो कहा जाता है कि तथाभव्यत्व के संपूर्ण परिपाकवश समस्त प्रयोजनों की समाप्ति होने से सकल कर्तव्य-शक्ति से रहित हुए हैं, अब उन्हें कुछ कर्तव्य ही नहीं रहां, ऐसे हैं सिद्ध पारगत । जब कि उपर्युक्त संसार-निर्वाण उभय से रहित, यानी मध्य में अवस्थित को तो न कोई कर्तव्य है, या न कर्तव्यसमाप्ति; लेकिन यह विरुद्ध है, जीव की ऐसी कोई अवस्था ही नहीं हो सकती। अगर कर्तव्य समाप्त नहीं हुआ है तो संसार अवस्था ही है, फिर वह अगर मोक्ष में नहीं तब संसार में भी नहीं यह कैसे हो सकता है ? 'परंपरगयाणं' : 'अक्रमसिद्धत्व' मतखण्डन : ऐसे भी पारगत सिद्ध क्रम बिना ही सिद्ध हुए हैं, - ऐसा कई एक स्वेच्छावादी कहते हैं। उदाहरणार्थ, उनसे कहा गया है कि - "नैकादिसव्याक्रमतो वित्तप्राप्तिर्नियोगतः । दरिद्रराज्याप्तिसमा, तद्वन्मुक्तिः क्वचिन्न किम् ? ॥" __ अर्थात् "ऐसा कोई नियम नहीं है कि धनप्राप्ति एकैक आदि संख्या के क्रम से ही होती है, क्योंकि क्या किसी दरिद्र को कदाचित् एक ही साथ राज्यप्राप्ति नहीं होती है ? बस, इसी प्रकार क्वचित् क्रमशः उन्नति प्राप्त किये बिना मुक्ति क्यों न हो ? अवश्य हो सकती है।" इस मत के निषेधार्थ यहां कहां गया है 'परंपरगयाणं' - अर्थात् परम्परा से मुक्ति प्राप्त किये हुए को । 'परम्परा' का अर्थ है ज्ञान-दर्शन-चारित्र का क्रम । यह क्रम मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानक में विभक्त है; १४. गुणस्थानक :- (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक में जीव सर्वज्ञोक्त तत्त्व की श्रद्धा से रहित उलट अरुचि वाला ओर मिथ्या तत्त्व की रूचि वाला, तथा अनंतानुबन्धि कषाय के उदय से ग्रस्त होता है। यहां मन्द मिथ्यात्व-दशा में संसारवैराग्य एवं मोक्षरुचि होती है । (२) सास्वादन गुणस्थानक में जीव वान्ति किये गए सम्यग्दर्शन का कुछ आस्वाद रूप मिथ्यात्वाभाव एवं और अनंतानुबन्धी कषायोदय से संपन्न होता है (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उन अनंतानुबन्धी कषायों के उदय से युक्त एवं तत्त्व, अतत्त्व दोनों के प्रति रुचि-अरुचि से रहित होता है। (४) अविरत सम्यग्दृष्टि जीव केवल सर्वज्ञोक्त तत्त्व की संपूर्ण श्रद्धा वाला होता है किन्तु अतत्त्व की लेश श्रद्धा वाला नहीं; फिर भी वह श्रद्धानुसार हिंसादि पापों से विरत नहीं। (५) विरताविरत याने देशविरति वाला जीव हिंसादि से अंशतः विरत एवं अविरत अर्थात् स्थूल अहिंसादिव्रत वाला होता है। (७) अप्रमत्त जीव संशय भ्रम, राग-द्वेषादि प्रमाद से भी रहित होता है। (८) निवृत्ति याने अपूर्वकरण वाला जीव मोहनीय कर्म में अपूर्व स्थितिघात-रसघात-गुणश्रेणि-गुणसंक्रम एवं अपूर्व स्थितिबन्ध करता है, और अंत में हास्य-शोक-रति-अरति भय और जुगुप्सा कर्म का उदय रोक देता है। (९) अनिवृत्ति वाला जीव वेदोदय ओर सूक्ष्म भी क्रोध - मान - माया के उदय का निग्रह करता है। (१०) सूक्ष्म - संपराय में जीव सूक्ष्म लोभ के उदय को भी अंत में रोक देता है। (११) उपशान्तमोह में मोहनीय का सर्वथा उपशम रहने से वीतराग अवस्था होती है। (१२) क्षीणमोह में ३४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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