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सिद्धाणं बुद्धाणं ० (सिद्धेभ्यो बुद्धेभ्य ०) पुनरनुष्ठानपरम्पराफलभूतेभ्यस्तथाभावेन तक्रियाप्रयोजकेभ्यश्च सिद्धेभ्यो नमस्करणायेदं पठति पठन्ति वा, - 'सिद्धाणं' इत्यादि सूत्रम् - ["सिद्धाणं बुद्धाणं, पारगयाणं परंपरगयाणं । लोयग्गमुवगयाणं नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥१॥]
अस्य व्याख्या, - सितं ध्मातमेषामिति सिद्धाः, निर्दग्धानेकभवकर्मेन्धना इत्यर्थः । तेभ्यो नम इति योगः । ते च सामान्यतः कर्मादिसिद्धा अपि भवन्ति, यथोक्तम् - 'कम्मे सिप्पे य विज्जा य, मंते, जोगे य आगमे । अत्थ-जत्ता-अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय ॥ १ ॥' इत्यादि अतः कर्मादिसिद्धव्यपोहायाह 'बुद्धेभ्यः' । अज्ञाननिद्राप्रसुप्ते जगत्यपरोपदेशेन जीवादिरूपं तत्त्वं बुद्धवन्तो बुद्धाः सर्वज्ञसर्वदर्शिस्वभावबोधरूपा इत्यर्थः, एतेभ्यः । होता है। कहते हैं 'जीव खुद ही मनुष्य हुआ, अब देव नहीं रहा' । अतः सार यह निकला कि सत् पदार्थ उत्पतिनाश-स्थैर्य से युक्त होता है।
अगर पदार्थ-व्यवस्था ऐसी हो, तभी विधि-निषेध एवं अनुष्ठान संगत हो सकते हैं। कारण, विधिपालन और निषेधत्याग के एवं अनुष्ठान के फल जीव यदि नित्यानित्य हो तभी संगत हो सकते है। जीव नित्य होने से, पालन और त्याग जिसने किया वही जीव फल पा सकता है ; और अनित्य होने से फलभोग के लिए वही जीव अवस्था भेद पा सकता है। यदि जीव एकान्त रूप से नित्य ही हो तब तो कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा, तब उसमें नयी फल-अवस्था कैसे आ सके? एवं पुरानी अवस्था कैसे नष्ट हो? एवं एकान्त अनित्य हो यानी पूर्वका समूल नष्ट और बिलकुल नया ही उत्पन्न यदि हो तब इसका अर्थ यह हुआ कि पालन किसी ने किया और फल कोई दूसरा ही भोगता है। अर्हत्प्रवचन में ही अनेकान्त पदार्थ-व्यवस्था है, इसलिए विधिनिषेध-अनुष्ठान-पदार्थ इन तीनों में परस्पर कोइ विरोध का प्रसङ्ग नहीं होता है। एवं सकल नयमतों से व्याप्त एवं आराधक को फलदाता होने से प्रवनच-श्रुत ऐश्वर्ययुक्त एवं सर्वसमृद्धिमान याने भगवान कहलाता है।
इस श्रुत भगवान के वन्दनादि के लाभार्थ कार्योत्सर्ग करना है, इसके बारे में सब विस्तार पूर्ववत् समझना; एवं पूर्ववत् स्तुति भी; लेकिन वह स्तुति श्रुत की स्तुति पढ़ी जाती है, क्यों कि अपने समान-जातीय श्रुतस्तव की वह समर्थक होती है, सजातीय का समर्थन सजातीय से होता है यह उसके ज्ञाता पुरुषों को अनुभवसिद्ध है। ऐसी सजातीय स्तुति से समर्थन न करे और विजातीय स्तुति पढ़े तब समाधि यानी चित्त-स्थैर्य नष्ट होगा, यह स्पष्ट है। तृतीय स्तुति श्रुत की ही होती है यह पूर्वाचार्यों का संप्रदाय है।
पुक्खरवरदीवड्ढे सूत्र यानी श्रुतस्तव की व्याख्या समाप्त ।
सिद्धाणं बद्धाणं० (सिद्धों को, बुद्धों को०) श्रुतस्तव के बाद अब मोक्षमार्ग के अनुष्ठानों की परंपरा के स्वयं फलभूत मोक्ष को प्राप्त किये हुए, और दूसरों को, इन 'अनुष्ठानों का ऐसा फल होता है' इस प्रकार दृष्टान्तरूप बन कर अनुष्ठान एवं फलप्राप्ति में प्रयोजन होने वाले सिद्ध भगवान के प्रति नमस्कार करने के लिए एक या अनेक साधक यह सूत्र पढ़ते हैं, --
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