SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निरीक्षण एवं मृदु रजोहरणादि से प्रमार्जन का उपयोग रखना, ता कि सूक्ष्म जीव की भी हिंसा न हो। वैसे ही अहिंसार्थ, (५) पारिष्ठापनिकासमिति = मल-मूत्रादि के परित्यागकरते वख्त पहले जीवरक्षादि के लिए स्थानादि देख लेना। (१-३) मनोगुप्ति - वचनगुप्ति - कायगुप्ति = लेशमात्र भी पाप और दोष वाली प्रवृत्ति से मन - वचन - काया को हटा देना अर्थात् ऐसे विचार वाणी और वर्तन करने से रुक जाना और निष्पाप, निर्दोष शुभ विचारादि में मग्न रहना। सभी क्रियाएं समिति - गुप्ति के संपूर्ण पालन का ध्यान रख कर की जाएं। ऐसा हो तभी मूल हिंसानिषेध के साथ आचार-अनुष्ठान का कुछ विरोध उपस्थित नहीं हुआ ऐसा कह सकते हैं । इस प्रकार, •विधिनिषेध एवं अनुष्ठानवचन से अविरुद्ध पदार्थवचन, - 'उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्तं सत्', 'एकं द्रव्यम् अनन्तपर्यायम्' अर्थः - अर्थात् सत् वही है जो उत्पति, नाश और स्थैर्य से युक्त है। पदार्थ द्रव्यरूप है जो कि त्रिकाल-स्थिर आश्रयव्यक्ति रूपसे एक है और अनन्त पर्याय-युक्त है, अनन्तपर्यायात्मक है। पर्याय रूप से अनन्त है। द्रव्य और पर्याय : वस्तु वस्तु में कई धर्म होते हैं, उन धर्मों की आधारभूत उस वस्तु को 'द्रव्य' कहते हैं, और उन धर्मों को पर्याय कहते हैं। विश्व में सत् पदार्थ मात्र उत्पत्ति - नाश - स्थैर्य, इन तीनों स्वभाव से युक्त होते हैं; क्यों कि सत् पदार्थ एकानेक रूप होता है, अपने में रहे हुए धर्मों के आश्रय रूप से एक, और आश्रित अनंत धर्म रूप से अनेक । धर्म, पर्याय, अवस्था, स्वतंत्र तो रह सकते नहीं, कहीं न कहीं आश्रित ही रहते हैं। धर्म जिसमें आश्रित है वह द्रव्य कहा जाता है, और धर्म स्वयं पर्याय कहे जाते हैं। ये धर्म भी द्रव्य में भेदाभेद संबन्ध से हैं, क्यों कि आश्रय द्रव्य से वे एकान्ततः भिन्न नहीं है, और एकान्ततः अभिन्न भी नहीं है, किन्तु भिन्नाभिन्न है - कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न । उदाहरणार्थ शक्कर में मधुरता जो है वह आश्रयद्रव्य शक्कर से एकान्ततः भिन्न नहीं क्यों कि शक्करादि को छोड़कर मधुरता स्वतंत्र कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती है, जो शक्कर है वही मधुरता है इसलिए वह अभिन्न माननी होगी। एवं एकान्ततः अभिन्न भी नहीं क्यों कि (१) 'शक्कर' 'मधुरता' इस प्रकार नाम भिन्न भिन्न है, (२) ऐसे ही उनके कार्य भिन्न भिन्न होते हैं जैसे कि शक्कर का कार्य पानी में पिघल जाना; मधुरता का कार्य मधुर बनाना । (३) द्रव्य ठहरते हुए भी धर्म आते जाते हैं; एवं (४) दोनों की संख्या भिन्न भिन्न है, द्रव्य एक है, उसमें धर्म अनेक है । इसलिए वे भिन्न भी है। अब, एकैक द्रव्य में अनन्त धर्म होते हैं और वे जब कथंचित् अभेद रूप से द्रव्य में रहे हैं तब अभेद का अर्थ द्रव्य ही खुद अनन्त धर्म स्वरूप हुआ। इन आश्रित धर्म पर्यायों की दृष्टि से वस्तु अनेक रूप है, और खुद आधार द्रव्य की दृष्टि से एक रूप है। उत्पत्ति - विनाश - स्थैर्य : अब देखिए कि सत् पदार्थ के दो अंश हुए, एक द्रव्य अंश, दूसरा पर्याय अंश । द्रव्यांश स्थिर होता है, पर्यायांश अस्थिर यानी उत्पत्ति विनाश वाला होता है। जीव में जीवत्व स्थिर अंश है, शाश्वत सनातन है ; वह द्रव्यांश है। और जीव में मनुष्यत्व आदि पर्याय उत्पन्न एवं नष्ट होने वाले होते हैं। स्थैर्य, उत्पत्ति, एवं विनाश, - तीनों ही जीव में हैं। वही जीव जीवरूप से कायम होता हुआ, पर्याय मनुष्यत्वादि रूप से उत्पन्न होता है, नष्ट ३४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy